क्यौ री तै दधि लीन्हे डोलति।
झूठैही इत उत फिरि आवति इहँहि आनि कै बोलति।।
मही भरी ज्यौ मटुकी त्यौही मोहि देखत भई साँझ।
गोरस कौ न लिवैया जानति हौ इहिं बखरा माँझ।।
सुनि री सखी बात इक मेरी कहति बुरी जिनि मानै।
तेरे घर मैं तुही सयानी और बेचि नहिं जानै।।
रिझई रसिक स्यामघन सुंदर चितवत चित्त चुरावै।
'सूरदास' ग्वारिनि रसभीजी ससकत आपु बँधावै।। 67 ।।