कवहूँ तुम नाहिंन गहरु कियौ।
सदा सुभाव सुलभ सुमिरन बस, भक्तनि अभै दियौ।
गाइ-गोप-गोपीजन-कारन गिरि कर-कमल लियौ।
अध-अरिष्ट केसी, काली मथि दावान लहिं पियौ।
कंस-बंस बधि, जरासंध हति, गरु-सुत आनि दियौ।
दरषत सभा द्रुपद-तनया कौ अंबर अछय कियौ।
सूर स्याम सरबज्ञ कृपानिधि, करुना-मृदुल-हियौ।
काकी सरन जाउँ नँदनंदन, नाहिंन और बियौ।।।121।।
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