हरि सौं धेनु दुहावति प्यारी।
करति मनोरथ पूरन मन, वृषभानु महर की बारी।
दूध-धार मुख पर छबि लागति, सो उपमा अति भारी।
मानौ चंद कलंकहिं धोवत, जहँ-तहँ बूँद सुधा री।।
हाव-भाव रस-मगन भए दोउ, छबि निरखति ललिता री।
गो-दोहन-सुख करत सूर-प्रभु, तीनिहुँ भुवन कहा री।।733।।