हरि के बाल-चरित अनूप।
निरखि रहीं ब्रजनारि इकटक अंग-अंग प्रति रूप।
बिथुरि अलकैं रही मुख पर बिनहिं बपन सुभाइ।
देखि कंजनि चंद के बस मधुप करत सहाइ।
सजल लोचन चारु नासा परम रुचिर बनाइ।
जुगल खंजल करत अबिनति, बीच कियौ बनराइ।
अरुन अधरनि दसन झाई कहौं उपमा थोरि।
नील पुट बिच मनौ मोती धरे बंदन बोरि।
सुभग बाल मुकुंद की छबि बरनि कापै जाइ।
भृकुटि पर मसि-बिंदु सोहै सकै सूर न गाइ।।225।।