हरि की ब्रज तन दीठि रुखौही।
याही तै लिखि पठवत अलि कर, बातै प्रेम छकौही।।
नातरु कहा करे हमसौ तब, मिलि मिलि बात लगौही।
कै अब प्रगट करी करुनामय, या ढँग करत हँसौही।।
कै बुलाइ लीन्हे हम घर तै, तरल भौह मुसकौही।
कै अब डारि दई मन बच क्रम, पतरी ज्यौहि जुठौही।।
जहाँ रहौ तहँ कोटि बरष लगि, जियौ स्याम सुख सौही।
वे कुबिजा बस हम जु लोग बस, ‘सूर’ आपनी गौ ही।।3495।।