हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 99 श्लोक 1-19

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: नवनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्‍ण का द्वारका तथा अन्‍त:पुर में प्रवेश और मणिपर्वत एवं पारिजात को यथोचित स्‍थान में स्‍थापित करना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्‍ण ने इस प्रकार द्वारका का निरीक्षण करते हुए अपने आवास-स्‍थान को देखा, जो सैकड़ों प्रासादों से सुशोभित था। उसमें मणियों के बने हुए लाखों-करोड़ों खम्‍भे लगे थे, जिनकी प्रभा से वहाँ का सब कुछ सुस्‍पष्‍ट दिखायी देता था। वहाँ के बाहरी फाटक मणि-मूँगे एवं चाँदी के बने हुए थे और प्रज्‍वलित अग्नि के समान उद्भासित होते थे। जहाँ-तहाँ प्रकाशित होने वाले उन फाटकों में सोने की विचित्र वेदिकाएँ बनी हुई थीं। उन सबसे उद्दीप्‍त दिखायी देने वाला श्रीकृष्‍ण का वह महान प्रासाद उनका उपस्‍थानगृह था। उसमें स्‍फटिक मणि के खम्‍भे लगे हुए थे, जिनसे वह प्रासाद प्रकाशित होता था। उसका विस्‍तार बहुत बड़ा था। वहाँ की सभी वस्‍तुएं सोने की बनी हुई थीं, वहाँ की बावड़ियों का जल कमलों से आच्‍छादित था, उनमें लाल रंग के सौगन्धिक कमल खिले हुए थे। वे बावड़ियां मणि और सुवर्ण के समान विचित्र शोभा से सम्‍पन्‍न दिखायी देती थीं, रत्‍नमयी सीढ़ियों से अलंकृत थीं, मतवाले मोर और सदा मदमत्‍त रहने वाले कोकिल उनका सेवन करते थे, विकसित कमलों से आच्‍छादित होने के कारण वे उत्‍तम शोभा से सम्‍पन्‍न हो रही थीं। श्रीकृष्‍ण के उस भवन का परकोटा विश्‍वकर्मा ने प्रस्‍तर से बनाया था। उसकी ऊँचाई सौ हाथ की थी और वह खाइयों से घिरा हुआ था। वृष्णिवंश के सिंह श्रीकृष्‍ण के उस भवन का निर्माण साक्षात विश्‍वकर्मा ने किया था। सब ओर से आधा योजन विस्‍तृत वह श्रीकृष्‍ण का महल देवराज इन्‍द्र के भवन-सा मनोहर था।

तदनन्‍तर गरुड़ के ऊपर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्‍ण ने मन-ही-मन प्रसन्‍न होकर श्‍वेतवर्ण वाले अपने उस पांचजन्‍य शंख को बजाया, जो शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाला था। उस शंख के शब्‍द से समुद्र विक्षुब्‍ध हो उठा तथा सम्‍पूर्ण आकाश मण्‍डल गूँजने लगा, उस समय वहाँ यह अद्भुत बात हुई। पांचजन्‍य का गम्‍भीर घोष सुनकर और गरुड़ का दर्शन पाकर कुकुर तथा अन्‍धकवंशी यादव शोकरहित हो गये। भगवान श्रीकृष्‍ण के हाथों में शंख, चक्र और गदा आदि आयुध सुशोभित थे। वे गरुड़ के ऊपर बैठे थे। उनका तेज भगवान भास्‍कर के समान था। उन्‍हें देखकर समस्‍त पुरवासियों को बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्‍तर तुरही और भेरियां बज उठीं, उनकी आवाज बहुत दूर तक फैल गयी, फिर समस्‍त पुरवासी भी सिंहनाद कर उठे। तत्‍पश्‍चात सभी दशार्हवंशी यादव तथा कुकुर और अन्‍धकवंश के सब लोग भगवान मधुसूदन का दर्शन करके बड़े प्रसन्‍न हुए और सभी उनकी अगवानी के लिये आ गये। राजा उग्रसेन भगवान वासुदेव को आगे करके शंख और तूर्य आदि वाद्यों की ध्‍वनि के साथ वसुदेव के महल तक उन्‍हें पहुँचाने के लिये गये। वहाँ आनन्‍द में डूबी हुई देवकी, रोहिणी, यशोदा तथा उग्रसेन की रानियों ने अपने-अपने भवनों में भगवान श्रीकृष्‍ण का विशेष सत्‍कार किया। तदनन्‍तर श्रीकृष्‍ण गरुड़ के द्वारा अपने महल में गये। इन्‍द्र आदि ऐश्‍वर्यशाली देवता जिनके अनुचर हैं, वे श्रीहरि अपने अभीष्‍ट स्‍थान पर जा पहुँचे। घरके मुख्‍य द्वार पर उतरकर यादव शिरोमणि यदुनन्‍दन श्रीकृष्‍ण ने उन यादवों का यथायोग्‍य सत्‍कार किया। बलराम, उग्रसेन, गद, अक्रूर और प्रद्युम्न आदि से सम्‍मानित हो श्रीकृष्‍ण ने अपने गृह में प्रवेश किया। उस समय रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्‍न ने मणिपर्वत तथा इन्‍द्र के प्रिय महान वृक्ष पारिजात को लेकर भगवान के महल में पहुँचा दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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