हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! एक दिन इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुमुख श्रीकृष्ण अपने भाई संकर्षण के बिना ही उस रमणीय वृन्दावन में विचरने लगे। उन्होंने मस्तक के पिछले भाग में काकपक्ष (बड़े-बड़े केश) धारण कर रखे थे। उनके नेत्र कमलदल के समान सुन्दर एवं विशाल थे। वे श्याम सुन्दर छवि से युक्त एवं श्रीसम्पन्न थे तथा वक्ष:स्थल में श्री वत्सचिह्न धारण करके शशाचिह्न से संयुक्त चन्द्रमा के समान शोभा पाते थे। बाजूबन्द से विभूषित हुए उनके हाथों का अग्रभाग विकसित कमल के समान कान्तिमान था; उनके पैर सुकुमार, लाल और क्रान्त-विक्रान्त गति से चलने वाले थे, जिनसे उनकी अनुपम शोभा होती थी। वे कमल-केसर के समान पीले रंग के दो महीन वस्त्र पहने हुए थे, जो मनुष्यों के आनन्द को बढ़ाने वाले थे। उन वस्त्रों को धारण करने वाले श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण संध्याकाल की स्वर्णिम आभा से युक्त मेघ के समान सुशोभित होते थे। उनकी दोनों भुजाएं सुन्दर, गोल तथा देवताओं द्वारा पूजित थीं। वे बछड़ों के व्यापार में संलग्न थीं और उनके गले में घूँघरू बांधने की रस्सियों से उलझी हुई थीं, ऐसी भुजाओं से श्रीकृष्ण की बड़ी शोभा हो रही थी। बाल्य (पौगण्ड) अवस्था में सुन्दर ओठों से सुशोभित उनका मुख कमल के सदृश सुन्दर और उसी के समान गन्ध से सुवासित होकर अपनी अद्भुत शोभा फैला रहा था। उनका मुखारबिन्दु खुले हुए अलकों से आवृत होकर ऐसी शोभा पा रहा था, मानों भ्रमर वालियों से युक्त कमलमण्डल सुशोभित हो रहा हो। उनके मस्तक पर अर्जुन और कदम्ब के फूलों से युक्त एक माला शोभा पा रही थी, जो नीप के पुष्पों तथा नूतन अंकुरों से सुशोभित थी। वह आकाश में तारिकाओं की भाँति अपनी छटा छिटका रही थी। वैसी ही माला उनके कण्ठ में भी पड़ी हुई थी, जिससे वीरवर घनश्याम श्रीकृष्ण मेघमालाओं की श्याम कान्ति से सम्पन्न मूर्तिमान भाद्रपद-मास की भाँति शोभा पा रहे थे। उनके कण्ठगत सूत्र में एक निर्मल मोर पंख लटक रहा था, जो मन्दगति से बहने वाली वायु के हल के आघात से हिल रहा था। उस मोरपंख से भी उनके श्री अंगों की शोभा वृद्धि हो रही थी। वे वन में कहीं गाते, कहीं खेलते, कहीं भ्रमण करते और कहीं कानों को सुख देने वाला पत्तों का बाजा बजाते थे। किसी समय वन में जाकर तरुण रूप धारण करके गौओं को आनन्दित करने के लिये इच्छानुसार अत्यन्त मधुर स्वर में मुरली बजाया करते थे, जो उस समय के गोपों का प्रमुख वाद्य थी। नूतन जलधर के समान श्याम एवं कान्तिमान भगवान श्रीकृष्ण गोकुल के आसपास विचरने तथा रमणीय एवं विचित्र वन श्रेणियों में विहार करने लगे। वहाँ मयूरों की केका ध्वनि गूँजती रहती थी। वे वन-पंक्तियाँ कामी पुरुषों के मन में कामभाव का उद्दीपन करने वाली थीं। मेघों की गर्जना की प्रतिध्वनियों से वहाँ सब ओर कोलाहल मचा रहता था। उनके मार्ग घासों से ढक गये थे। जगह-जगह उगे हुए छत्राक उनके आभूषण से प्रतीत होते थे। उनमें नये-नये पल्लव अंकुरित हो रहे थे तथा वे नूतन जल टपका रही थीं। मदजनित नि:श्वास के समान केसरों की नूतन गन्ध से वे वन श्रेणियाँ कामिनियों की भाँति प्रतिदिन बारम्बार उच्छवास ले रही थी। वृक्षों के समूह से निकली हुई नूतन वायु से सेवित हुए श्रीकृष्ण उन सौम्य वनराजियों मे बड़े आनन्द का अनुभव करने लगे। एक दिन उस वन में गौओं के साथ भ्रमण करते हुए श्रीकृष्ण ने वहाँ एक वृक्ष को देखा, जो बहुत ही ऊँचा तथा सभी वृक्षों में बड़ा था। अपने पत्तों के संचय से अत्यन्त घना प्रतीत होने वाला वह वृक्ष पृथ्वी पर मूर्तिमान मेघ के समान खड़ा था। अपनी ऊँचाई से उसने आकाश के आधे भाग को रोक लिया था और वह पर्वत के समान विस्तृत आकार धारण करता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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