वैशम्पायन उवाच
मृतमित्यभिविज्ञाय ज्वरं शत्रुनिषूदन:।
कृष्णो् भुजबलाभ्यां तु चिक्षेपाथ महीतले।।1।।
मुक्तोमात्र: बाहुभ्यां कृष्णदेहं विवेश ह।
अमुक्त्वाय विग्रहं तस्या कृष्णस्या प्रतिमौजस:।।2।।
स ह्याविष्टस्तथा तेन ज्वरेणाप्रतिमौजसा।
कृष्ण: स्खलन्निव मुहु: क्षितौ गाढं व्यवर्तत।।3।।
जृम्भते श्वसते चैव वल्गते च पुन: पुन:।
रोमांचोत्थितगात्रश्चट निद्रया चाभिभूयते।।4।।
तत: स्थैटर्यं समालम्य् कृष्णग: परपुरंजय:।
विकुर्वति महायोगी जृम्भतमाण: पुन: पुन:।।5।।