हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
श्रीकृष्ण ने कहा- यादवों! आप सब लोग पवित्र कीर्ति वाले हैं, आपकी तपस्या, बल और एकाग्रता से तथा आपके द्वारा किये गये अनिष्ट चिन्तन से भूमिपुत्र पापात्मा नरकासुर मारा गया। उसके यहाँ जो सुरक्षित कन्याओं का उत्तम अन्त:पुर था, उसे मैंने बन्धन से मुक्त किया तथा मणिपर्वत के इस शिखर को उखाड़कर भी मैं यहाँ साथ लेता आया हूँ। किंकर नामक राक्षसों ने जिसे मेरे यहाँ पहुँचाया है, वही यह महान धनराशि आप लोगों के समक्ष है। आप सभी इस धन के स्वामी हैं। उनसे ऐसा कहकर भगवान चुप हो गये। भगवान वासुदेव का यह वचन सुनकर भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के लोग हर्ष में भर गये। उनके शरीर में रोमांच हो आया और वे नरवीर भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते हुए उनसे हाथ जोड़कर बोले- 'महाबाहो! आप देवकीनन्दन में ऐसी उदारता का होना आश्चर्य की बात नहीं है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ऐसा दुष्कर कर्म करके आप अपने ही द्वारा उपार्जित रत्नों और भोगों से हम स्वजनों का लालन करते हैं। तदनन्तर सब दशार्हकुल की स्त्रियां तथा राजा उग्रसेन की रानियां बड़ी प्रसन्नता के साथ भगवान वासुदेव को देखने के लिये आयीं। वसुदेव की सहदेवा[1] आदि सात देवियाँ, जिनमें सातवीं देवकी थीं और सुन्दर मुखवाली रोहिणी देवी इन सबने वहाँ सिंहासन पर बैठे हुए श्रीकृष्ण तथा महाबाहु बलराम का दर्शन किया। बलराम और श्रीकृष्ण्ा दोनों भाइयों ने पहले औरों को छोड़कर रोहिणी को प्रणाम करने के अनन्तर देवी देवकी का अभिवादन किया। माता देवकी वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले उन दोनों पुत्रों के साथ उसी प्रकार शोभा पाने लगीं, जैसे मित्र और वरुण के साथ देवमाता अदिति सुशोभित होती हैं। उसी समय उन दोनों श्रेष्ठ पुरुषों के पास यशोदा जी की वह पुत्री आ पहुँची, जिसे लोग इच्छानुसार रूप धारण करने वाली एकानंशा कहते हैं। जिसके दिये हुए संकेत और मुहूर्त के अनुसार देवेश्वर श्रीहरि का प्रादुर्भाव हुआ था और जिसके ही कारण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने सेवकों सहित कंस का वध कर डाला था। वह कन्या वृष्णिवंशियों के घर में बड़े आदर-सत्कार के साथ पल रही थी। भगवान वासुदेव की आज्ञा से उस समय उसका पुत्र की भाँति पालन किया जाता था। श्रीकृष्ण की रक्षा के लिये भूतल पर उत्पन्न हुई उस दुर्धर्ष योग कन्या को मनुष्य एकानंशा कहते हैं। समस्त यादव प्रसन्नचित्त से उस देवी की पूजा करते हैं, जिसने देवतुल्य दिव्य पुरुष श्रीकृष्ण की रक्षा की थी। वहाँ अपनी प्रिय सखी की भाँति उस बहिन से मिलकर श्रीकृष्ण ने दाहिने हाथ से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। उसी प्रकार अत्यन्त बलशाली बलराम जी ने उस भामिनी बहिन को हृदय से लगाकर उसका मस्तक सूँघा और बांये हाथ से उसका हाथ पकड़ लिया। बलराम और श्रीकृष्ण के बीच में खड़ी हुई उनकी उस बहिन को सभी स्त्रियों ने देखा। वह सुवर्णमय कमल हाथ में लिये हुए कमलालया लक्ष्मी की भाँति सुशोभित होती थी। वे स्त्रियाँ अक्षतों की बड़ी भारी वर्षा करके नाना प्रकार के मांगलिक पुष्प और खील बिखेर कर अपने-अपने घर को चली गयीं। तदनन्तर वे समस्त यादव श्रीकृष्ण की पूजा तथा उनके अद्भुत कर्म की प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक उनके पास बैठ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सहदेवा, शान्तिदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, वृकदेवी, उपदेवी और देवकी- ये सात देवक की पुत्रियाँ थीं, जो क्रमश: वसुदेव को ही विवाही गयी थीं।
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