हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-20

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद[1]

षट्पुरवासी असुरों का संक्षिप्‍त परिचय, उन्‍हें ब्रह्मा और भगवान शिव का वरदान

जनमेजय ने कहा- धर्मज्ञ! व्‍यासशिष्‍य! तपोधन! वैशम्‍पायन जी! आपने पारिजात हरण के प्रसंग में ‘षट्पुर’ की चर्चा की थी। तपोधन! आपने कहा था कि वह नगर बड़े-बडे़ भयंकर असुरों का स्‍थान था। मुनिश्रेष्‍ठ! आप उन षट्पुर निवासी दैत्‍यों तथा अन्धकासुर के वध का वर्णन कीजिये। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वीर! अनायास ही समस्‍त कर्म करने वाले रुद्रदेव के द्वारा जब दैत्‍यों के तीनों पुरों का विनाश किया गया, उस समय वहाँ बहुत-से प्रधान-प्रधान असुर-शिरोमणि शेष रह गये। वे त्रिपुरा निवासी होने पर भी रुद्रदेव के बाणों की आग से दग्‍ध न हो सके। उनकी संख्‍या लगभग साठ लाख थी। उन असुर वीरों ने पूर्वकाल में अपने बन्‍धु-बान्‍धवों के वध से संतप्‍त होकर महर्षि गणों से सेवित तथा सत्‍पुरुषों के प्रिय जम्‍बू मार्ग में जाकर तपस्‍या आरम्‍भ की। नृपश्रेष्‍ठ! वे वीर दैत्‍य सूर्य की ओर मुँह करके वायु के आहार पर रहकर एक लाख वर्षों तक कमलयोनि ब्रह्मा जी की स्‍तुति करते रहे। राजन! उन दैत्‍यों में एक दल ऐसा था, जो गूलर के वृक्ष का आश्रय लेकर रहता था। वे वीर दैत्‍य वहाँ महान् तप करते हुए निवास करते थे। पूर्वकाल में उन दैत्‍यों में से कुछ लोग कपित्‍थ (कैथ) वृक्ष का आश्रय लेकर वहाँ रहते थे और दूसरे सियारों की मांदों में रहकर वहाँ उग्र तपस्‍या करते थे (अथवा सृगाल नामक वृक्ष-विशेष की वाटिकाओं में रहकर तपस्‍या करते थे)।

कौरवनन्‍दन! कुछ असुरकुमार वट-वृक्ष की जड़ में रहते और उस वृक्ष पर चढ़कर परब्रह्म का चिन्‍तन करते हुए तपस्‍या करते थे। नरदेव! कुछ काल के अनन्‍तर धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ प्रजास्रष्‍टा देवशिरोमणि पितामह ब्रह्मा जी उन पर संतुष्‍ट हो उन्‍हें वर देने के लिए वहाँ आये। राजन! कमलयोनि ब्रह्मा ने उनसे कहा- ‘वर मांगो’। तब उन्‍होंने भगवान त्रिनेत्रधारी रुद्र से द्वेष रखने के कारण वरदान लेने की इच्‍छा नहीं की। कुरुकुल को आनन्‍द प्रदान करने वाले कुरुनन्‍दन! वे रुद्रदेव से बदला लेकर उनके द्वारा मारे गये अपने भाई-बन्‍धुओं के ऋण से उऋण होना चाहते थे। तब सर्वज्ञ ब्रह्मा जी ने उनसे कहा- जो सम्‍पूर्ण जगत के कर्ता और संहर्ता हैं, उन महात्‍मा भगवान शंकर से बदला लेने में कौन समर्थ है? इस विषय में तुम्‍हें व्‍यर्थ श्रम नहीं उठाना चाहिए। उमा सहित महेश्‍वर देव आदि, मध्‍य और अन्‍त से रहित हैं। उनसे द्रोह रखकर जो असुर स्‍वर्ग में सुखपूर्वक रहना चाहते थे; उन दुरात्‍मा महान असुरों ने तो वर लेने की इच्‍छा नहीं की; परंतु राजन! जो दूसरे असुर भव्‍य भावना से सम्‍पन्‍न (दूरदर्शी) अथवा भगवान् शिव की महिमा के ज्ञाता थे, उन्‍होंने वर लेने की अभिलाषा व्‍यक्त की।

जिन दुरात्‍माओं ने वर लेने की इच्‍छा नहीं की, उनसे पितामह ब्रह्मा ने फिर कहा- ‘वीर असुरों! तुम भगवान रुद्र पर क्रोध प्रकट करने के सिवा दूसरा कोई भी वर मांग लो’। तब उन्‍होंने कहा- ‘विभो! हम सब देवताओं के लिए अवध्‍य हों। देव! पृथ्‍वी के भीतर हमारे छ: पुर हों। प्रभो! हमारे वे छहों पुर सम्‍पूर्ण मनोवांछित पदार्थों की समृद्धि से सम्‍पन्‍न हों। भगवन्! हम षट्पुर में जाकर सुखपूर्वक निवास करें। तपोनिधे! जिन्‍होंने हमारे बन्‍धु–बान्‍धवों को मार डाला है, उन रुद्रदेव से हमें उग्र भय प्राप्‍त न हो; क्‍योंकि त्रिपुरों का विनाश देखकर हम भयभीत हो गये हैं’। पितामह बोले- 'असुरों! तुम देवताओं तथा भगवान शंकर के लिये अवध्‍य हो जाओगे। परंतु ऐसा तभी होगा, जब तुम सन्‍मार्ग पर सुस्थिर रहने वाले सत्‍पुरुषों के प्रिय ब्राह्मणोंको बाधा नहीं पहुँचाओगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पूना वाली प्रति की मान्‍यता के अनुसार यहाँ से हरिवंश का उत्तरार्ध भाग आरम्‍भ होता है।

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