हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-18

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

मंगलाचरण, नारद जी का मथुरा में आकर कंस को आने वाले भय की सूचना देना और कंस का अपने सेवकों के सामने बढ़-बढ़कर बातें बनाना।

बदरिकाश्रम निवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण (अथवा अन्‍तर्यामी नारायण), नर (नारायणसखा अर्जुन अथवा आदि जीव हिरण्‍यगर्भ) तथा नरोत्तम (इन हिरण्‍यगर्भ एवं अन्‍तर्यामी से भी श्रेष्ठ शुद्ध सच्चिदानन्दन पुरुषोत्तम श्रीकृष्‍ण) को और (इन नर-नारायण तथा नरोत्‍तम के तत्‍व को प्रकट करने वाली) देवी सरस्वती को एवं (देवी सरस्‍वती ने संसार पर अनुग्रह करने के लिये जिनके शरीर में प्रवेश किया है, उन) व्यास जी को प्रणाम करके अविद्या रूपी अज्ञानान्‍धकार को जीतने वाले इतिहास-पुराण आदि ग्रन्‍थों का पाठ आरम्‍भ करे।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान विष्‍णु और देवताओं के अंश भूतल पर अवतीर्ण हो चुके हैं, यह जानकर देवर्षि नारद कंस को उसके निकटवर्ती विनाश की सूचना देने के लिये मथुरा को गये। स्‍वर्ग से उतरकर वे मथुरा के उपवन में खड़े हो गये और वहीं से उन मुनिश्रेष्ठ ने कंस के पास एक दूत भेजा। उस दूत ने कंस के पास जाकर बताया कि नगर के उपवन में देवर्षि नारद पधारे हैं। नारद जी के आगमन का समाचार सुनकर कमल लोचन असुर कंस जल्‍दी-जल्‍दी पैर बढ़ाता हुआ अपनी पुरी से बाहर निकला। उपवन में पहुँचकर उसने वहाँ अपने स्‍पृहणीय अतिथि देवर्षि नारद का दर्शन किया, जो पाप-ताप से रहित थे। उनका तेज प्रज्‍वलित अग्नि के समान दीप्तिमान दिखाई देते थे। कंस ने देवर्षि को प्रणाम करके उनका विधिपूर्वक पूजन किया। उसने उनके लिये अग्नि के समान कान्तिमान सुवर्णमय आसन देकर क्रमश: अर्घ्य, पाद्य आदि उपहार प्रस्‍तुत किये। तत्‍पश्चात इन्‍द्र के सखा नारद मुनि उस आसन पर बैठे। बैठने के बाद वे परमक्रोधी उग्रसेनपुत्र कंस से बोले- ‘वीर! तुमने मेरा शास्‍त्रीय विधि से पूजन किया है, इसलिये मैं तुम्‍हें एक आवश्‍यक बात बताता हूँ, तुम मेरे उस वचन को सुनो और ग्रहण करो।

तात! मैं ब्रह्मलोक आदि सभी स्‍वर्गीय लोकों में घूमता हुआ उस विशाल मेरूपर्वत पर जा पहुँचा, जो सूर्यदेव का सखा है। फिर नन्‍दनवन और चैत्ररथवन का दर्शन करके मैंने देवताओं के साथ सम्‍पूर्ण तीर्थों और सरिताओं में स्‍नान किया। उसके बाद तीन धाराओं में बँटी हुई दिव्य त्रिपथगा नदी पुण्‍यसलिला गंगा का दर्शन किया, जो स्‍मरण मात्र से ही समस्‍त पापों का विनाश कर देने वाली है। तत्‍पश्चात क्रमश: दिव्य तीर्थों में स्‍नान एवं आचमन करके मैंने ब्रह्मर्षियों से सेवित ब्रह्मा जी के भवन का दर्शन किया, जो देव-गन्‍धर्वों के वाद्यघोष से गूंजता और अप्‍सराओं के मधुर गीतों से निनांदित होता रहता है। वहाँ से होकर मैं किसी समय हाथ में वीणा लिये मेरु के शिखर पर विराजमान ब्रह्मा जी की सभा में गया, जहाँ देवताओं का समाज जुटा हुआ था। वहाँ मैंने देखा कि श्‍वेत पगड़ी धारण किये नाना रत्‍नों से विभूषित ब्रह्मा आदि सभी देवता दिव्यसिंहासन पर बैठे हुए हैं। उस सभा में देवताओं की जो गुप्त मन्त्रणा हो रही थी, उसमें मैंने सुना कि सेवकों सहित तुम्‍हारे वध के अत्‍यन्‍त दारुण उपाय का ही विचार हो रहा है। कंस! वहाँ जो कुछ मैंने सुना है, उसके अनुसार मथुरा में जो तुम्‍हारी यह छोटी बहिन देवकी है, इसका आठवां गर्भ तुम्‍हारे लिये मृत्‍यु रूप होगा। वह गर्भ देवताओं का सर्वस्‍व तथा स्‍वर्ग-लोक का आश्रय होगा। वह देवताओं का परमगोपनीय रहस्‍य है। वही तुम्‍हारी मृत्‍यु का कारण होगा वही देवताओं का पर और अपर (मोक्ष और स्‍वर्ग) है। वही उन स्‍वर्गवासियों का स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा है। इसलिये मैं तुमसे कहता हूँ कि वह महान दिव्यभूत है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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