हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवादवैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! कमलनयन श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम को आगे करके बड़े वेग से रंगशाला में घुसे थे। उस समय उनके वस्त्र हवा के झोंके से फहरा उठे थे। हाथी का दाँत उनकी पहचान कराने वाला चिह्न या उपलक्षण बन गया था। उनकी भुजाएँ बड़ी सुन्दर थी। देवकीनन्दन वीर श्रीकृष्ण बाहों में हाथी के मद और रुधिर इस तरह लिपटे थे कि उनमें लीलापूर्वक अंग (बाजूबंद) की रचना हो गयी थी। वे सिंह की तरह उछलते तथा कंस वध की युक्ति सोचते हुए आकाश में बादल की भाँति रंगशाला में विचर रहे थे। भुजाओं पर ताल ठोंककर जब वे उसकी ध्वनि फैलाते थे, तब पृथ्वी को भी हिला देते थे। उन्हें हाथी के दाँत को ही आयुध रूप से हाथ में लिये देख उग्रसेनकुमार कंस अत्यन्त मलिन हो गया और वह बड़े रोष में भरकर उनकी ओर देखने लगा। अपने हाथ में सटे हुए उस गजदन्त से सुशोभित होने वाले श्रीकृष्ण अर्धचन्द्र के बिम्ब से संयुक्त हुए एक शिखर वाले पर्वत के समान जान पड़ते थे। श्रीकृष्ण के उछलते-कूदते आते ही वह समुद- जैसा सम्पूर्ण रंगस्थल जनसमुदाय के हर्षनाद से परिपूर्ण हुआ-सा प्रतीत होने लगा। तदनन्तर क्रोध से लाल आँखें किये परमक्रोधी कंस ने महाबली अन्ध्र मल्ल चाणूर को जो कपट युद्ध करने वाला था, श्रीकृष्ण के साथ लड़ने का आदेश दिया और जिसका शरीर प्रस्तर समूह के समान सुदृढ़ था, उस कपटी महाबली मुष्टिक को रोष में भरे हुए कंस ने बलदेव के साथ जूझने की आज्ञा दी। कंस ने चाणूर को तो पहले से ही यह आज्ञा दे रखी थी कि तुम्हें श्रीकृष्ण के साथ यत्नपूर्वक युद्ध करना चाहिये। अत: रोष से लाल आँखे किये चाणूर युद्ध करने के लिये श्रीकृष्ण के निकट आया। उस समय वह जल से भरे-पूरे मेघ के समान जान पड़ता था। राजा की ओर से शान्त रहने की घोषणा होते ही वहाँ का सारा जनसमुदाय नीरव तथा निश्चल हो गया, तब वहाँ एक साथ बैठे हुए यादव इस प्रकार कहने लगे- 'पूर्वकाल में विधाता ने मल्ल युद्ध के विषय में यह नियम बनाया था कि यह युद्ध रंगस्थल के अखाड़े में केवल भुजाओं द्वारा हो। इसमें किसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग न किया जाय। इसमें (दो व्यक्तियों का जोड़ निश्चित करने के लिये) कोई-न-कोई परीक्षक रहना चाहिये। इसमें कायर या डरपोक को सम्मिलित नहीं करना चाहिये। इसमें क्रिया (दाँव-पेंच आदि) और बल (शारीरिक शक्ति) के द्वारा ही विपक्षी को परास्त करने की आज्ञा दी गयी है। समयोचित कर्तव्य को देखने और समझने वाले पुरुषों को उचित है कि वे सदा योद्धाओं के लिये जल प्रस्तुत करके उनकी भारी थकावट दूर करें और गोबर का चूर्ण सुलभ करके पहलवान का सदा सत्कार करना चाहिये। युद्धपरीक्षकों ने यह बताया है कि जो जिस मार्ग (दाँव-पेंच) से लड़े, उसके साथ उसी के अनुरुप दाँव लगकर भूमि पर खड़े हुए के साथ खड़ा होकर ही लड़ना चाहिये। शारीरिक बल और क्रिया (दाँव-पेंच) से ही बाहुयुद्ध करने का विधान है। विज्ञ पुरुष को चाहिये कि प्रतिद्वन्दी को गिरा देने के बाद उसके साथ और कुछ न करे। इस समय रंगस्थल में श्रीकृष्ण और अन्ध्र मल्ल-चाणूर का युद्ध प्रस्तुत है, परन्तु इनमें श्रीकृष्ण तो अभी बालक हैं और चाणूर विशालकाय पहलवान है, इस विषमता पर विचार क्यों नहीं किया जाता?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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