हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 116 श्लोक 1-20

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षोडशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

भगवान शंकर का बाणासुर को अपने और देवी पार्वती के पुत्र के रूप में स्वीकार करना, बाणासुर का उनसे युद्ध के लिये वर माँगना और पाना तथा इससे बाणमन्त्री कुम्भाण्ड का चिन्तित होना

जनमेजय ने कहा- विद्वानों में उत्तम द्विजश्रेष्ठ! मैंने आपके मुख से बुद्धिमान महाबाहु यदुकुल सिंह वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के अपरिमेय कर्मों को फिर से सुना। तपोधन! आपने पहले महान असुर बाण के विषय में जो चर्चा की है, उसको मैं विस्तार से सुनना चाहता हूँ। ब्रह्मन्! वह असुर देवाधिदेव महादेव जी के पुत्र भाव को कैसे प्राप्त हुआ? जिससे महात्मा भगवान शंकर ने स्वयं उसकी रक्षा की तथा उसके सहवास में रहने वाले गणों सहित भगवान स्कन्द ने भी उसका संरक्षण किया। बलवान बलि का पुत्र जो अपने सौ भाइयों में ज्येष्ठ था, वह सैकड़ों दिव्यास्त्र धारण करने वाली सहस्र भुजाओं से युक्त था। वह असंख्य विशालकाय तथा सैकड़ों महाबली असुरों से घिरा रहता था तो भी जब वह युद्ध की इच्छा से रोष और आवेश में भरकर आया, तब भगवान वासुदेव ने युद्ध में उसे पराजित कैसे कर दिया? तथा किस प्रकार उन्होंने उसे जीवित छोड़ा था?

वैशम्पायन जी बोले- राजन! मानव लोक में अमित तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण बाणासुर के साथ जिस तरह महान संग्राम हुआ था, उसे ध्यान देकर सुनो। जहाँ रुद्र और स्कन्द की सहायता से सम्पन्न हुए युद्धश्लाघी बलिपुत्र बाणासुर को भगवान श्रीकृष्ण ने जीतकर भी जीवित छोड़ दिया। महात्मा शंकर ने जिस प्रकार बाणासुर को सदा अपने समीप रहने और अक्षय भाव से गणपति-पद पर प्रतिष्ठित होने का वरदान दिया था। जिस प्रकार बाणासुर का वह युद्ध हुआ, जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने उसे जीवित छोड़ा, जिस तरह वह असुर देवाधिदेव महादेवजी के पुत्र भाव को प्राप्‍त हुआ तथा जिस निमित्त से उस महान युद्ध की घटना घटित हुई, वह सारा वृत्तान्त सम्पूर्ण रूप से सुनो। एक समय क्रीड़ा में लगे हुए महामनस्वी कुमार स्कन्द के सुन्दर शरीर को देखकर महापराक्रमी बलि पुत्र बाणासुर को बड़ा विस्मय हुआ। उस समय उनके मन में रुद्रदेव की आराधना के लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या करने का विचार उत्पन्न हुआ। उस तप का उद्देश्य यही था कि मैं किसी प्रकार महादेवजी का पुत्र हो जाऊँ।

तदनन्तर उसने तपस्या के द्वारा अपने शरीर को गलाना आरम्भ किया। उसे अपनी तपस्या पर गर्व भी होता था। अर्थात वह यह समझता था कि मैं ही महान् तपस्वी हूँ तथा पार्वती सहित महादेवजी उस पर बहुत संतुष्ट हुए। परम प्रसन्नता को प्राप्त होकर भगवान नीलकण्ठ ने उस असुर से कहा- 'बाण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो।' तब बाण ने देवाधिदेव महेश्वर से कहा- 'त्रिलोचन! मैं आपका दिया हुआ देवी पार्वती का पुत्रत्व चाहता हूँ।' तब भगवान शंकर ने ‘तथास्तु’ कहकर देवी रुद्राणी से इस प्रकार कहा- 'देवि! तुम इसे पुत्र के रूप में स्वीकार करो। यह कार्तिकेय का छोटा भाई होगा। जहाँ रुधिरपुर में अग्रिकुमार महासेन का प्रादुर्भाव हुआ था, उस स्थान पर इसकी राजधानी होगी। इसमें संशय नहीं है। वह उत्तम नगर शोणितपुर के नाम से विख्यात होगा। मेरे द्वारा सुरक्षित हुए इस तेजस्वी बाणासुर का वेग कोई नहीं सह सकेगा।' तदनन्तर शोणितपुर में निवास करता हुआ बाण सदा अपने राज्य का शासन करने लगा। वह सम्पूर्ण देवताओं को क्षोभ में डाले रहता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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