हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-20

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

आर्या की स्तु‍ति

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पूर्वकाल में जैसा ऋषियों ने बताया है, उसके अनुसार मैं आर्यादेवी की स्तु्ति का वर्णन करता हूँ। तीनों लोकों की अधीश्वरी नारायणी देवी को नमस्कार करता हूँ। देवि! तुम्हीं सिद्धि धृति, कीर्ति, श्री, विद्या, संनति, मति, संध्यां, रात्रि, प्रभा, निद्रा, और कालरात्रि हो। आर्या, कात्यायनी, देवी कौशिकी, ब्रह्मारिणी, सिद्धसेन (कुमार कार्तिकेय) की जननी, उग्रचारिणी तथा महान बल से सम्पन्न हो। जया, विजया, पुष्टि, तुष्टि, क्षमा, दया, यम की ज्येष्ठ बहिन तथा नीले रंग की रेशमी साड़ी पहनने वाली हो। तुम्हारे बहुत से रूप हैं, इसलिये तुम बहुरूपा हो। अनेक प्रकार की विधियों को आचरण में लाने वाली हो। तनी होने के कारण तुम्हारे नेत्र विरूप प्रतीत होते हैं इसलिये तुम विरूपाक्षी हो। तुम्हारे नेत्र बडे़-बड़े हैं, इस कारण विशालाक्षी हो। तुम सदा अपने भक्तों की रक्षा करने वाली हो। महादेवी! पर्वतों के घोर शिखरों पर, नदियों में, गुफाओं में तथा वनों और उपवनों में भी तुम्हारा निवास है। शबरों, बर्बरों और पुलिन्दों ने भी तुम्हारा अच्छी तरह से पूजन किया है। तुम मोरपंख की ध्वजा से सुशोभित हो और क्रमश: सभी लोकों में विचरती रहती हो। मुर्गे, बकरे, भेड़, सिंह तथा व्याघ्र आदि पशु-पक्षी तुम्हें सदा घेरे रहते हैं। तुम्हारे पास घण्टा की ध्वनि अधिक होती है। तुम ‘विन्यवासिनी’ नाम से विख्यात हो। देवि! तुम त्रिशूल और पट्टिश धारण करने वाली हो तुम्हारी पताका पर सूर्य और चन्द्र के चिह्न हैं।

तुम प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की नवमी और शुक्ल पक्ष की एकादशी हो। बलदेव जी की बहिन हो। रात्रि तुम्हारा स्वरूप है। कलह तुम्हें प्रिय लगता है। तुम सम्पू्र्ण भूतों का आवास स्थान, मृत्यु तथा परम गति हो। तुम नन्दगोप की पुत्री देवताओं को विजय दिलाने वाली, चीर वस्त्रआधारिणी, सुवासिनी रौद्री संध्याकाल में विचरने वाली और रात्रि हो। तुम्‍हारे केश बिखरे हुए हैं। तुम्हीं प्राणियों की मृत्यु हो। मधु से युक्त तथा मांस से रहित बलि तुम्हें प्रिय है। तुम्ही लक्ष्मी हो तथा दानवों का वध करने के लिये अलक्ष्मी बन जाती हो। तुम्ही सावित्री, देवमाता अदिति तथा समस्ति भूतों की जननी हो। कन्याओं का ब्रह्मचर्य तुम्हीं हो और विवाहित युवतियों का सौभाग्य भी तुम्हीं हो। तुम्हीं यज्ञों की अन्तर्वेदी तथा ऋत्विजों की दक्षिणा हो। किसानों की सीता (हल जोतने से उभरी हुई रेखा) तथा समस्ती प्राणियों को धारण करने वाली धरणी भी तुम्हीं हो। नौका या जहाज से यात्रा करने वाले व्यातपारियों को प्राप्त होने वाली सिद्धि भी तुम्हीं हो।

तुम्हीं समुद्र की तट-भूमि, यक्षों की प्रथम यक्षी (कुबेर की माता) तथा नागों की जननी सुरसा हो। देवि! तुम ब्रह्मवादिनी दीक्षा तथा परम शोभा हो। ज्योतिर्मय ग्रहों एवं तारिकाओं की प्रभा हो तथा नक्षत्रों में रोहिणी हो। राजद्वारों, तीर्थों तथा नदियों के संगमों में तुम पूर्ण लक्ष्मी रूप से स्थित हो। तुम्हीं चन्द्रमा में पूर्णिमा रूप से विराजमान होती हो तथा तुम्ही कृत्तिवासा हो। तुम महर्षि वाल्मीकि में सरस्वती रूप से, श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास में स्मृति रूप से तथा ऋषि तथा ऋषि-मुनियों में धर्म-बुद्धि रूप से स्थित हो देवताओं में सत्य संकल्पाशत्मोक चित्तवृत्ति भी तुम्हीं हो। तुम समस्त-भूतों में सुरा देवी हो और अपने कर्मों द्वारा सदा प्रशंसित होती हो। इन्‍द्र की मनोहर दृष्टि भी तुम्हीं हो;। सहस्रों नेत्रों से युक्त होने के कारण ‘सहस्रनयना’ नाम से तुम्हारी ख्याति है। तुम तपस्वी मुनियों की देवी हो। अग्निहोत्र करने वाले ब्राह्मणों की अरणी हो। समस्त प्राणियों की क्षुधा तथा देवताओं में सदा बनी रहने वाली तृप्ति हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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