हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-16

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

भेड़ियों के उत्पात से वृजवासियों का उस स्थान को छोड़कर श्री वृन्दावन में जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार उन दुर्जय भेड़ियों को बढ़ते देख समस्त व्रज के स्‍त्री-पुरुष एकत्र हो उस समय इस प्रकार मन्त्रणा करने लगे। ‘अब हमें इस स्थान पर रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम लोग दूसरे किसी विशाल वन में चल चलें, जो हमारे लिये कल्याणकारी, सुखपूर्वक रहने योग्य तथा गौओं के लिये भी सुखदायक हो। विलम्ब करने से क्या लाभ? हम आज ही अपने गोधनों के साथ यहाँ से चल दें। भेड़ियों से हमारे सारे व्रज का भयंकर वध न हो जाय- इसके पहले ही हमें यहाँ से प्रस्थान कर देना चाहिये। इन भेड़ियों के सारे अंग धूमिल और लाल रंग के हैं, इनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें हैं। ये नखों से बकोट लेते हैं। इनके मुख काले हैं और रात के समय ये भीषण गर्जना करते हैं। हमें इनसे बड़ा भय लगता है। घर-घर की स्त्रियां करुणक्रन्दन करती हुई यों कहती हैं कि- 'हाय! हाय इन भेड़ियों ने मेरे पुत्र को, मेरे भाई को, मेरे बछड़े को और मेरी गाय को मार डाला है।' उनके रोने के शब्द से और गायों के रंभाने से चिन्तित हो एकत्र हुए व्रज के वृद्ध पुरुषों ने व्रज को वहाँ से उठा देने का ही निश्चय किया। जब नन्‍द जी ने वृन्दावन में निवास करने के निमित्त उन सबके दृढ़ निश्चय को समझ लिया, तब वे बृहस्पति के समान यह महत्त्वपूर्ण वचन बोले-

'यदि यह बात निश्चित हो गयी और हमें जाना ही होगा तो आज ही यात्रा कर देनी चाहिये। शीघ्र ही सारे व्रज में यह आदेश दे दिया जाय कि तुम सब लोग शीघ्र ही यहाँ से प्रस्थान के लिये तैयार हो जाओ, देर न करो’। फिर तो प्राकृतजनों द्वारा व्रज में यह घोषणा करा दी गयी कि ‘व्रजवासियों! शीघ्र ही गौओं को तैयार कर लो। अपने बर्तन-भांड़ों को छकड़ों पर लाद लो। बछड़ों के समूहों को अभी हांक दो। गाड़ियां जोतो और यहाँ से वृन्दावन में रहने के लिये प्रस्थान करो’। नन्द गोप का कहा हुआ यह उत्तम वचन सुनकर सारे व्रज के लोग जाने के लिये उत्सुक हो शीघ्र ही उठ खड़े हुए। इस प्रकार जब वह व्रज वहाँ से उठने लगा, गोपों का, कोलाहल इस तरह से सुनाई देने लगा- ‘अरे! चलो, उठो, हम सब लोग चल रहे हैं, क्या सो रहे हो, जाओ, छकड़ा जोतो’। गाड़ियों और छकड़ों से युक्त वह ब्रज जब वहाँ से उठकर चला, उस समय ऐसा भयंकर कोलाहल हुआ, मानो वहाँ व्याघ्रों के दहाड़ने की भारी आवाज हो रही हो अथवा समुद्र की गर्जना सुनायी देती हो। सिर पर माट और घड़े उठाये गोपियों की पंक्ति जब व्रज से निकली, उस समय ऐसा जान पड़ा मानो आकाश से ताराओं की पांत उतर आयी हो। उनके नीले, पीले और लाल वस्त्रों से सुशोभित हो मार्ग पर चलती हुई गोपियों की पंक्ति इन्द्र धनुष के समान शोभा पाती थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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