हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-15

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टम श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण-बलराम की बालचर्या, श्रीकृष्ण के द्वारा व्रज को अन्यत्र ले जाने की चेष्टा और अपने शरीर से भेड़ियों को उत्पन्न करके उनका समूचे व्रज को डराना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार श्रीकृष्ण और संकर्षण दोनों भाई उसी व्रज में बाल्यावस्था को पार करके सात वर्ष के हो गये। इनमें से एक (बलराम) तो नील वस्त्र धारण करते थे और दूसरे (श्रीकृष्ण) पीत वस्त्र। दोनों के चन्दन और अंगराग भी क्रमश: पीले और श्वेत थे। दोनों ही काकपक्ष धारण करते थे। अब वे दोनो भाई बछडे़ चराने लगे। उन दोनों के मुख बड़े सुन्दर थे। वे वन में जाकर कानों को सुख देने वाले पत्तों के बाजे (पिपीहरी या सीटी) बजाते हुए तीन सिर वाले सर्पों के समान शोभा पाते थे।[1] मोर पंख के ही बाजूबंद और कर्णभूषण पहने तथा पत्तों के ही मुकुट धारण किये वे दोनों भाई वृक्ष के निकले हुए नये पौधों के समान दिखाई देते थे। उनका वक्ष:स्थल वनमाला से व्याप्त था। कमल पुष्पों के शिरोभूषण और रस्सी के यज्ञोपवीत धारण करके वे दोनों ग्वालबालों के समान मुरली बजाया करते थे। उनके साथ छींका, तुम्बी और करक (करूआ या पुरवा) भी थे। कहीं एक दूसरे की ओर देखकर हँसते-हँसते, कहीं भाँति-भाँति के खेल खेलते और कहीं पत्तों के बिछौनों पर सोकर आंखों में नींद भर लेते थे।

इस प्रकार बछड़े चराते, महावन की शोभा बढ़ाते, बारम्बार सब ओर चक्कर लगाते और चंचल गति वाले अश्व शावकों के समान वन में विहार करते थे। तदन्‍तर एक दिन शोभासम्पन्न दामोदर श्रीकृष्ण ने अपने भाई संकषर्ण से कहा- 'आर्य! अब इस वन में ग्वाल बालों के साथ खेलना सम्भव नहीं है। हम लोगों ने इस सारे वन को अपने उपभोग में लाकर इसकी शोभा-सम्पत्ति नष्ट कर दी है। यहाँ की घास चर ली गयी और काठ भी तोड़ लिये गये हैं। गोपों ने यहाँ के एक-एक वृक्ष को मथ डाला है। जो वन और कानन सघन थे, वे अब आकाश के समान सूने दिखाई देते हैं। इन्हें देखकर अब सुख नहीं मिलता। जिनके फाटकों में गोलाकार कुंडे लगे हैं, उन गोशालाओं में भी अमिट शोभा वाले जो वृक्ष थे, वे सब गोष्ठ की आग में जलकर नष्ट हो गये। जो तृण और काष्ठा बहुत निकट थे, वे दूर तक की जोती हुई भूमियों में अब ढूँढ़ने के योग्य रह गये हैं। इस वन में जल बहुत थोड़ा है, सूखे काठ और तृण भी बहुत कम हैं, यहाँ आश्रय लेने योग्य कोई स्थान नहीं है, यहाँ विश्राम के लिये भूमि खोजनी पड़ती है, विरले ही वृक्ष बच गये हैं, अत: इसकी बड़ी दारुण अवस्था हो गयी है। यहाँ के वृक्ष अब काम के नहीं रहे (इनमें फल-फूल का अभाव हो गया है)। इन पर जो पक्षी रहते थे, वे अब अन्यत्र प्रस्थान कर चुके हैं। इस विशाल बस्ती के लोगों ने यहाँ के वृक्षों को उजाड़ दिया है। यहाँ कोई आनन्द नहीं रहा, फलों का आस्वा‍द दुर्लभ हो गया। यहाँ वायु का चलना भी निष्‍फल है (क्योंकि न तो वह सुगन्ध देती है और न फल ही गिराती है- इन दोनों वस्तुओं का यहाँ सर्वथा अभाव है)। पक्षियों से रहित यह सूना वन बिना व्यंजन के भोजन की भाँति अच्छा नहीं लगता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ताड़ आदि के पत्ते को मोड़कर उसके सिरे पर छोटा-सा छेद रखकर उसे दोनों हाथ से पकडे़ हुए बच्चे मँह में डालकर फूँकते हैं, उसमें से सीटी, बिगुल या बांसुरी- जैसी आवाज निकलती है। उसे बजाते समय दोनों हाथ और सिर ऊँचाई पर रहते हैं। इन्हीं को सर्प के तीन सिरों से उपमा दी गयी है।

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