हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! गरुड़ पर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारकापुरी को देखा, जो देवलोक के समान शोभा पा रही थी। वहाँ चारों ओर समुद्र गर्जना की प्रतिध्वनि व्याप्त हो रही थी। उस पुरी में जहाँ-तहाँ मणिमय पर्वत तथा यंत्र सुशोभित थे। बहुत-से क्रीड़ागृह बने हुए थे। अनेकानेक उद्यान, श्रेष्ठ वन, छज्जे और चबूतरे शोभा दे रहे थे। श्रीकृष्ण ने इन सबको देखा। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण जब द्वारकापुरी के समीप पहँचे, तब देवराज इन्द्र ने विश्वकर्मा को बुलाकर इस प्रकार कहा- 'शिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मन! यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये पुन: द्वारकापुरी को पहले से भी अधिक मनोहर बना दो। विबुधश्रेष्ठ! जैसी ये मेरी पुरी है, उसी प्रकार तुम द्वारका को सैकड़ों उद्यानों से हरी-भरी तथा स्वर्गतुल्य मनोहारिणी बना दो। तीनों लोकों में जो कुछ भी तुम्हें रत्नरूप दिखायी दे, उससे द्वारकापुरी को शीघ्र ही संयुक्त कर दो। क्योंकि महाबली श्रीकृष्ण समस्त देव कार्यों के लिये सदा तैयार रहते हैं और घोर-से-घोर संग्रामों में भी प्रवेश कर जाते है।' विश्वकर्मा ने इन्द्र के आदेश से पुरी में जाकर उसे सब ओर से उसी प्रकार अलंकृत किया, जैसे देवराज की अमरावतीपुरी सुसज्जित रहती है। यादवों के स्वामी गरुड़वाहन श्रीकृष्ण ने अपनी उस पुरी को विश्वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्य भावों से अलंकृत देखा। उस समय उस तरह सजी द्वारका को देखकर सम्पूर्ण अर्थों से सम्पन्न सर्वव्यापी भगवान नारायण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें प्रवेश आरम्भ किया। विश्वकर्मा द्वारा विचित्र शोभा से सम्पन्न की हुई द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत-से रमणीय वृक्षखण्ड देखे, जो दृष्टि और मन को आकृष्ट कर लेते थे। वह पुरी गंगा और सिन्धु के समान सुशोभित होने वाली चौड़ी खाइयों से घिरी हुई थी। उनमें कमलों के समूह भरे हुए थे तथा हंस उनके जल का सेवन करते थे। ऊँचे टीले पर बने हुए सुन्दर सुवर्णमय प्राकार (परकोटे)- से, जो सूर्य के सदृश प्रभापुंज से परिपूर्ण था, घिरी हुई द्वारकापुरी घनमाला से घिरे हुए आकाश के समान शोभा पाती थी। नन्दन और चैत्ररथ नामक वनों के समान मनोहर काननों से भली-भाँति घिरी हुई द्वारकापुरी मेघों से घिरे हुए द्युतलोक की भाँति सुशोभित हो रही थी। द्वारकापुरी की पूर्व दिशा में शोभा सम्पन्न रैवतक पर्वत बड़ा ही मनोहर प्रतीत होता था। उसके शिखर, गुफा और आंगन सभी रमणीय थे। उसके बाहरी फाटक मणि एवं सुवर्ण के बने हुए थे। पुरी के दक्षिण भाग में लतावेष्ट नामक पर्वत शोभा पा रहा था, जो पांच रंग का होने के कारण इन्द्र ध्वज-सा प्रतीत हो रहा था। पश्चिम दिशा में सुकक्ष नामक रजत पर्वत था, जिसके ऊपर विचित्र पुष्पों से अलंकृत महान वन सुशोभित हो रहा था। नृपश्रेष्ठ! मन्दराचल के समान श्वेत वर्णमाला वेणुमान पर्वत द्वारका की उत्तर दिशा को अत्यन्त शोभासम्पन्न बना रहा था। रैवतक पर्वत के चारों ओर चित्रक, पंचवर्ण, विशाल पांचजन्य तथा सर्वर्तुक नामक वन शोभा पा रहे थे। लतावेष्ट पर्वत के चारों ओर मेरुप्रभ नामक महान वन, भानुवन तथा पुष्पक नामक विशाल वन शोभा पा रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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