हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-14

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण और बलराम का जरासन्ध और उसकी सेनाओं के साथ युद्ध, राजा दरद की मृत्यु, जरासन्ध का पराजित होकर पलायन तथा चेदिराज दमघोष के साथ श्रीकृष्ण और बलराम का करवीरपुर में जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! वसुदेव के उन दोनों पुत्रों को पर्वत से कूद कर आया देख उन नरेशों की सारी सेना में हलचल मच गई। उनके वाहनों पर मोह छा गया। रोष में भरे हुए वे दोनों यदुवंशी वीर अपनी भुजाओं से ही आयुध का काम लेते हुए उस विशाल सेना में विचरने लगे, जैसे दो महान मगर समुद्र को विक्षुब्ध करते हुए उसके भीतर घूम रहे हों। समरांगण में प्रविष्ट होने पर उन दोनों यादवों के मन में अपने पुराने आयुधों को ग्रहण करने का विचार हुआ। फिर तो सहस्रों राजाओं के बीच में युद्ध की आकांक्षा रखने तथा समर में शोभा पाने वाले उन दोनों महात्माओं के हाथ में आकाश से वे ही अस्त्र–शस्त्र आ गए, जो मथुरा के युद्ध में उन दोनों को प्राप्त हुए थे।

उस युद्ध संबंधी विप्लव के समय वे ही प्रज्वलित अग्नि के तुल्य तेजस्वी, दीप्तिमान तथा शत्रुओं को चाट जाने वाले दिव्यास्त्र आकाश से आ पड़े। जिन्हें वे यादव–वीर मथुरा में ही (आकाश में) फेंककर चले गए थे, उन यदुवंशी वीरों को पुन: उन दिव्यास्त्रों की प्राप्ति हो गई। उन अस्त्रों के पीछे मांसभक्षी भूत–प्रेत आदि भी आ रहे थे। वे विशाल अस्त्र मूर्तिमान होकर उस युद्ध में समस्त राजाओं के रक्त–मांस का उपभोग करने के लिए मानो भूखे–प्यासे थे। उन सबने दिव्य पुष्पों की मालाएं धारण की थीं। वे अपनी प्रभा से प्रकाशित होकर दसों दिशाओं को सुशोभित कर देते थे और आकाशचारी प्राणियों को भी भयभीत कर देते थे।

सांवर्तक हल, सौनन्द मूसल, सुदर्शन चक्र और कौमोद की गदा–भगवान विष्णु के ये चार तेजस्वी अस्त्र–शस्त्र उस महासमर में उन दोनों यादव वीरों के लिए उतरे थे। पहले बलराम जी ने रणभूमि में सुंदर आकृति वाले सर्पराज के समान सर्पणशील तथा दिव्य मालाओं से अलंकृत हल को अपने दाएं हाथ में ग्रहण किया। फिर उन यदुकुलतिलक बलवान वीर ने बाएं हाथ से सौनन्द नामक उत्तम मूसल को ग्रहण किया, जो शत्रुओं को आनंदशून्य कर देने वाला था। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने संपूर्ण लोकों में दर्शनीय तथा सूर्य के समान तेजस्वी सुदर्शन नामक चक्र को बड़ी प्रसन्नता के साथ ग्रहण किया। फिर समस्त लोकों में दर्शनीय तथा मेघों की गर्जना के समान टंकार ध्वनि करने वाले शांर्ग नाम से विख्यात धनुष को भी उन भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक अपने हाथ में ले लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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