हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 79 श्लोक 1-17

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

पुण्‍यक-व्र‍त सम्‍बन्‍धी नियम एवं दान का वर्णन तथा पुत्र आदि के निमित्त किये जाने वाले दूसरे व्रत एवं दान का प्रतिपादन

उमा कहती हैं– देवि! पतिव्रता स्त्री इस सम्‍पूर्ण विधि के साथ एक वर्ष या छ: मास अथवा एक मास तक सदा इन्द्रिय-संयमपूर्वक व्रत का आचरण करे। इसमें ग्‍यारह साध्‍वी स्त्रियों को बुलाना चाहिये। मैंने स्‍वयं ही समाधि के द्वारा व्रतों के इस शुभ विधान का साक्षात्‍कार किया है। मूल व्रत का अनुष्‍ठान करने वाली प्रधान स्‍त्री अपने यहाँ आमन्त्रित की गयी। उन समस्‍त ग्‍यारह सतियों का दान करे और देश-काल के अनुसार उनका निष्‍क्रय दे दे।[1] तदनन्‍तर मास के अन्‍त में शुक्‍ल-पक्ष की नवमी तिथि को देवाराधना करके व्रत को समाप्‍त करना चाहिए। व्रत के उद्देश्‍य से उसकी सिद्धि के लिये आदि और अन्‍त में निश्चित रूप से एक दिन और रात का उपवास करना चाहिये। तदनन्‍तर अपने पति की हजामत बनवावे और अपना भी नखमात्र कटा ले। उसी दिन व्रतान्‍त स्‍नान तथा व्रत के उद्यापन या उत्‍सर्ग का विधान है। शुभे! पुण्‍यक-व्रत में भी विवाह के समान ही विधिपूर्वक स्‍नान करने की आज्ञा है उसमें श्रृंगार और माला धारण करने का विधान है। घड़ों के जल से नहलायी जाती हुई व्रतपरायण साध्‍वी स्‍त्री अपने पति के दोनों चरणों को मन अथवा वाणी द्वारा नमस्‍कार करके निम्‍नांकित मन्‍त्र का उच्‍चारण करे- ‘जल की अधिष्‍ठात्री देवी ऋषियों की जननी, सम्‍पूर्ण विश्‍व की माता, आकाश से प्रकट होने वाली, हर्ष प्रदान करने वाली, कल्‍याण कारिणी, धर्म के पोषण में तत्‍पर, सुवर्ण के समान वर्ण वाली, निर्मल तथा सबको पावन बनाने वाली है। वह अपने परम कल्‍याणमय रस के द्वारा मुझे श्रेय का भागी बनावे।'

सर्वांगशोभने देवि! यह जल सम्‍बन्‍धी मन्‍त्र सर्वत्र उपयोग में लाया जाता है। अन्‍यत्र स्त्रियों के स्‍नान के लिये पुराण विहित मन्‍त्र उपलब्‍ध होते हैं। उन्‍हें मुझसे सुनो। मैं पति के लिये कल्‍याणकारिणी होऊँ। धन आदि से कभी क्षीण न होऊँ। सद्गुणवती होऊँ। सदा पति के साथ धर्म में संलग्न रहूँ। मैं अपने स्‍वामी के साथ दासी के समान रहकर उनकी छोटी-से-छोटी भी सेवा-टहल स्‍वयं ही करूँ। सदा पति के अधीन रहूँ और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा भी कभी उनसे रुष्‍ट न होऊँ। सपत्नियों में मेरा स्‍थान सदा सबसे ऊपर हो। मैं पुत्रवती, सौभाग्‍यवती और मनोहर रूप वाली होऊँ। मेरा हाथ सदा सम्‍पन्‍न रहे अर्थात मैं मुक्‍त हस्‍त होकर दान कर सकूँ। मैं सम्‍पूर्ण हृदय से सदा दूसरों के गुणों का ही बखान करूँ और कभी दरिद्र न होऊँ। मेरे पति भी सदा प्रसन्‍नमुख रहकर मेरी प्रतीक्षा करने वाले हों, उनका सदा मुझमें अनुराग बना रहे। उनकी मति और गति मेरी ही ओर रहे। हम दोनों में चकवा और चकवी के समान प्रेम बना रहे। हमारे मन में कभी एक-दूसरे के प्रति विरक्ति न हो और हमारा व्‍यवहार सदा श्रेष्‍ठ पुरुषों के समान हो। जो शुभलक्षणा देवियां पतिभक्ति के प्रभाव से शक्तिशालिनी होकर पिता और पति दोनों के कुलों को पावन बनाती हैं तथा जो अपने धर्म से इस सम्‍पूर्ण विश्व को धारण करती हैं, उन्‍हीं उत्तम पतिव्रता देवियों के लोकों में मैं जाऊँ। पृथ्‍वी, वायु, जल, आकाश, अग्नि, अन्‍तर्यामी क्षेत्रज्ञ, प्रकृति, महत्त्‍व और अहंकार– इन सबको मैंने अपना साक्षी बनाया है। ये मेरे इस निश्‍चय और व्र‍त को स्‍मरण रखें। जिन सत्त्व आदि गुणों भूतों और उनके कर्मबीजों से युक्‍त हो देहधारियों के इस भौतिक शरीर का निर्माण किया है, वे और उनके अभिमानी देवता जो सबमें स्थित हैं, मेरे इस व्रत और निश्‍चय में सदा साक्षी बने रहें। चन्‍द्रमा, सूर्य, पुण्‍य के साक्षी यम, सम्‍पूर्ण दसों दिशाएं और मेरा यह आत्‍मा– ये सबमें स्थित रहने वाले देवता मेरे इस व्रत एवं निश्‍चय में सदा साक्षी बने रहें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इन पंक्तियों को देखकर यह अनुमान होता है कि पहले जिन ग्‍यारह सती स्त्रियों का उनके पतियों की अनुमति से आवाहन किया जाता है, उनका व्रतचारिणी स्‍त्री पुन: उनके पतियों को ही दान कर देती है। देश-काल के अनुरूप निष्‍क्रय देकर पहले उन्‍हें अपनी बनाती है और फिर उनको उनके पतियों को ही संकल्‍पपूर्वक सौंपकर दानजनित पुण्‍य की भागिनी होती है।

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