हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचदश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण और बलराम दोनों के इस प्रकार बाललीला में प्रवृत्त होकर वन में विचरते हुए वर्षा के दो मास व्यतीत हो गये। एक दिन जब वे दोनों वीर व्रज में आये, तब उन्होंने सुना कि इन्द्रयोग के उत्सव का समय आ गया है और समस्त गोप उस उत्सव को देखने के लिये लालायित हैं। तब श्रीकृष्ण ने कौतूहल वश उनसे यह बात पूछी- यह इन्द्रयोग का उत्सव क्या है? जिससे तुम लोगों को इतना हर्ष हो रहा है। उनके इस प्रकार पूछने पर उन गोपों में सबसे बड़े-बूढ़े एक गोप ने इस प्रकार कहा- तात! सुनो, हमारे यहाँ इन्द्र के ध्वज की पूजा किसलिये की जाती है, यह बताता हूँ। शत्रुदमन कृष्ण! देवताओं और मेघों के स्वामी देवराज इन्द्र हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत के सनातन रक्षक हैं। उन्हीं का यह उत्सव मनाया जाता है। उन्हीं से प्रेरित हो उन्हीं के आयुध (इन्द्रधनुष) से विभूषित हुए मेघ उनकी ही आज्ञा का पालन करते हुए नूतन जल की वर्षा करके खेती को उपजाते हैं। अनेक नामों से विभूषित भगवान पुरन्दर (इन्द्र) मेघ और जल के दाता हैं। वे प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण जगत को तृप्त करते हैं। उनके द्वारा सम्पन्न की हुई खेती से जो अन्न पैदा होता है, उसी को हम तथा दूसरे मनुष्य खाते हैं, उसी का धर्म के कार्य में भी उपयोग करते हैं। इस संसार में जब इन्द्रदेव वर्षा करते हैं, अब उसी से खेती की उपज बढ़ती है। वर्षा से ही पृथ्वी के तृप्त होने पर सम्पूर्ण जगत सजल दिखायी देता है। तात! उस वर्षा से बढ़ी हुई घासों द्वारा ही सांड़ों सहित ये गौएं हष्ट-पुष्ट होकर बछड़े देती और बछड़े देने वाली होती हैं। जहाँ वर्षा करने वाले मेघ दिखायी देते हैं, उस भूमि पर कभी अनाज और तृण का अभाव नहीं होता तथा वहाँ के लोग कभी भूख से पीड़ित नहीं देखे जाते हैं। सूर्यदेव की दिव्य किरणें पृथ्वी का जल सोखकर पयस्विनी (गौ अथवा जलवती) हो जाती हैं तब इन्द्रदेव उनका दोहन करते हैं। उनके दोहन करने पर वे किरणमयी गौएं नूतन एवं पवित्र जलरूपधारी दूध प्रकट करती हैं, जिसे मेघों के घटारूप दुग्धपात्र में संचित किया जाता है। वही वायु से प्रेरित होकर वेग से आवर्तित होने पर मेघों के भीतर अत्यन्त गम्भीर शब्द उत्पन्न करता है, जिसे लोग समझते हैं कि मेघ गर्जना कर रहा है। वायुयुक्त मेघों द्वारा ढोयी जाती हुई उस जलराशि का पर्वतभेदी शब्द ही वज्र एवं बिजली की गड़गड़ाहट के समान सुनायी देता है। जैसे राजा अपने सेवकों से काम लेता है, उसी प्रकार देवराज इन्द्र आकाश में फैले हुए तथा इच्छानुसार सर्वत्र जा सकने वाले बहुसंख्यक मेघों द्वारा वज्र की गड़गड़ाहट की आवाज के साथ उस जल को इस भूतल पर बरसाते हैं। कहीं वे मेघ दुर्दिन से होकर सारे आकाश में छा जाते हैं। कहीं फटे हुए बादलों के रूप में दिखायी देते हैं। कहीं खान से काटकर निकाले गये कोयले के समान काले होते हैं। इस तरह विभिन्न प्रकार के बादलों द्वारा देवराज इन्द्र आकाश एवं विश्व को अलंकृत-सा करते रहते हैं। कहीं-कहीं तो बादल पानी बरसाकर आकाश को जल बिन्दुरूपी मोतियों से प्रकाशित कर देता है। इस प्रकार पर्जन्यदेव (इन्द्र) इस पृथ्वी के जल को सूर्य की किरणों द्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियों की वृद्धि के लिये उसे मेघों द्वारा भूतल पर बरसा देते हैं। श्रीकृष्ण! इसीलिये यह वर्षा-ऋतु भूतल पर इन्द्रदेव की पूजा का समय है; अतएव समस्त राजा वर्षा-ऋतु में बड़ी प्रसन्नता के साथ नाना प्रकार के उत्सवों द्वारा देवराज की पूजा करते हैं। हम तथा दूसरे मनुष्य भी ऐसा ही करते हैं। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णुपर्व में श्रीकृष्ण की बाललीला के प्रसंग में गोपका वाक्यविषयक पन्द्रहवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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