हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-14

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

जरासंध के पुन: आक्रमण से शंकित यादवों की सभा में विकद्रु का भाषण- राजा हर्यश्व का चरित्र उनसे यदु एवं यादवों की उत्पत्ति का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महाबली भगवान श्रीकृष्ण रोहिणीकुमार बलदेव जी के साथ मिलकर यादवों से भरी हुई उस मथुरापुरी में सुखपूर्वक रहने लगे। उनके श्रीअंगों में यौवनावस्था का प्रवेश हुआ था। वे भगवान राजोचित शोभा से सम्पन्न हो वन प्रान्त से विभूषित मथुरा में प्रसन्नतापूर्वक विचरते थे। कुछ काल के अनन्तर राजगृह के स्वामी प्रतापी राजा जरासंध ने कंस के मारे जाने की घटना को फि‍र से स्मरण किया। उसकी दोनों कन्याओं ने पुन: उसे युद्ध के लिये उत्साहित किया। यादवों ने जरासंध को क्रमश: सत्रह बार युद्ध का अवसर दिया; परंतु वे महारथी यादव समरभूमि में उसे मार न सके।

तदनन्तर श्रीमान मगधराज ने चतुरंगिणी सेना को साथ लेकर फि‍र अठारहवीं बार यादवों के साथ युद्ध करने का आयोजन किया। राजगृह का स्वामी बलवान राजा श्रीमान जरासंध इन्द्र के समान पराक्रमी था। उसने पहले की पराजय से लज्जा का अनुभव करने के कारण पुन: युद्ध की तैयारी की। बृहद्रथ का वह बलवान पुत्र महान साधन से सम्पन्न हो श्रीकृष्ण का वध चाहता हुआ फि‍र मथुरापुरी की ओर लौटा। मगधराज को पुन: लौटा हुआ सुनकर जरासंध के भय से पीड़ित हुए सब यादव एक साथ मन्त्रणा करने लगे।

उस समय नीतिकुशल महातेजस्वी विकद्रु ने उग्रसेन के सुनते हुए कमलनयन श्रीकृष्ण से कहा- ‘तात! गोविन्द! इस कुल की उत्पत्ति का प्रसंग सुनो। इसके लिये उपयुक्त अवसर आया है, इसलिये बता रहा हूं; ध्यान देकर श्रवण करो। साधो! इसे सुनकर यदि उचित समझों तो मेरे कथनानुसार कार्य करना। यादववंश की इस उत्पत्ति का सारा प्रसंग आत्मज्ञानी व्यास जी ने पूर्वकाल में मुझे जैसा बताया था, वैसा ही सुना रहा हूँ। वैवस्वत मनु के वंश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व नाम के विख्यात एक श्रीसम्पन्न राजा हो गये हैं, जो महेन्द्र के तुल्य पराक्रमी थे।

मधु नामक दैत्य की पुत्री मधुमती देवी उनकी प्राण प्यारी भार्या थी। जैसे इन्द्र को शची प्रिय है, उसी प्रकार हर्यश्व को मधुमती प्रिय थी। वह यौवन के गुणों से सम्पन्न थी। इस पृथ्वी पर उसके रूप-सौन्दर्य की कहीं तुलना नहीं थी। वह राजा हर्यश्व के मनोरथ को सिद्ध करने वाली होने के कारण प्राणों से भी अधिक माननीया थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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