हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-21

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्र का संवर्तक मेघों द्वारा वर्षा कराकर गौओं ओर गोपों को कष्ट में डालना, श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण तथा उसके नीचे गौओं और गोपों सहित व्रजवासियों का जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अपना उत्‍सव रोक दिये जाने के कारण देवराज इन्द्र को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने मेघों के संवर्तक नामक गण को बुलाकर इस प्रकार कहा- 'मतवाले हाथियों के समान श्रेष्ठ मेघगण! यदि तुम्हें राजभक्ति को सामने रखते हुए मेरा प्रिय कार्य करना उचित जान पड़े, तो मेरी यह बात सुनो। ये वृन्दावन में गये हुए जो नन्द आदि गोप हैं वे दामोदर श्रीकृष्ण को ही सबसे बड़ा सहारा मानकर मेरे उत्‍सव से द्वेष रखने लगे हैं। अत: मेरी आज्ञा है कि उन गोपों की जो सबसे बड़ी आजीविका है तथा जिसका पालन करने के कारण उनका गोपत्‍व सार्थक माना गया है, नन्द आदि की उन गौओं को तुम लगातार सात रातों तक भारी वर्षा और वायु के द्वारा पीड़ित करो। मैं भी ऐरावत पर आरूढ़ होकर चलता हूँ और स्वयं ही वज्र एवं बिजली के साथ-साथ प्रकाशित होने वाले भयानक जल की वर्षा एवं वायु की सृष्टि करूँगा। तुम लोग प्रचण्‍ड वायु के साथ विचरते हुए जब घोर वर्षा करोगे, तब उससे आहत एवं पीड़ित हुई गौएं भूतल पर व्रजवासियों सहित अपने प्राण त्‍याग देंगी। श्रीकृष्ण द्वारा अपने उत्‍सव एवं शासन का विघात हो जाने पर प्रभावशाली पाकशासक इन्द्र ने समस्त जलधरों को इस प्रकार अपनी आज्ञा सुना दी। तब वे घोर गर्जना करने वाले पर्वताकार भयंकर काले मेघ आकाश में सब ओर छा गये। उस समय इन्द्रधनुष से विभूषित हो बिजली गिराते हुए उन मेघों ने आकाश को अन्धकारपूर्ण कर दिया। कुछ मेघ दूसरे हाथियों से सटकर चलते हुए हाथियों के समान प्रतीत होते थे। दूसरे मगरों के समान प्रकाशित होते थे तथा अन्य बड़े-बड़े बादल आकाश में नागों के समान विचरने लगे। जैसे हजारों हाथियों के झुंड एक-दूसरे से अपने शरीर को आबद्ध करके चल रहे हों, वैसे हों, वैसे ही प्रतीत होने वाले उन जलधरों ने आकाश को आच्छादित करके वहाँ बड़ा भारी दुर्दिन उपस्थित कर दिया।

मनुष्यों के हाथ, हाथियों के शुण्‍डदण्‍ड तथा बांस के तुल्‍य मोटी धाराएं प्रकट करके वे मेघ वहाँ सब ओर वर्षा करने लगे। मनुष्यों की आंखों ने आकाश में छाये हुए उस दुरवगाह अनन्त अगाध एवं महान दुर्दिन का समुद्र के समान ही माना। आकाश में चारों ओर पर्वताकार मेघ गर्जना कर रहे थे। उस समय पक्षियों ने उड़ना बंद कर दिया तथा विभिन्न जाति के पशु इधर-उधर भागने लगे। चन्द्रमा और सूर्य को भी नष्ट कर देने वाले प्रलयकाल के समान आकाश में छाये हुए उन भयंकर मेघों ने अपनी अतिवृष्टि के कारण समस्त पार्थिव जगत के रूप को विकृत कर दिया। मेघों की घटाएं घिर आने से व्‍योम मण्‍डल प्रभाशून्य हो गया। ग्रह और तारे दृष्टि पथ से ओझल हो गये। चन्द्रमा और सूर्य की किरणों का पता नहीं चलता था। अत: सारा आकाश अन्धकार से आच्छन्न सा हो गया। मेघों के बरसाये हुए तथा बारम्बार बरसाये जाते हुए जल से आवृत हो वहाँ सब ओर की भूमि जलमयी-सी प्रतीत होने लगी। उस समय वहाँ मोर जोर-जोर से बोलने लगे। पक्षियों की आवाज बहुत कम हो गयी। नदियों मे बाढ़ आ गयी और किनारे के वृक्ष प्रवाह में बह गये। मेघों की गर्जना तथा पर्जन्यदेव के गम्भीर नाद से डांटे गये की भाँति वृक्षों सहित तृण कांपने लगे। उस समय भय से पीड़ित हुए गोप आपस में कहने लगे कि निश्चय ही समस्त लोकों का अन्तकाल आ पहुँचा है और पृथ्‍वी एकार्णव में मग्न हो रही है। उस उत्‍पात स्वरूप जल की भारी वर्षा से अत्‍यन्त ताड़ित एवं पीड़ित हुई गोएं रँभाने की ध्‍वनि में करूण-क्रन्दन करती हुई हिल-डुल भी न सकीं। ऐसा जान पड़ता था, उनके सारे अंग अकड़ गये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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