हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-12

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

नारद जी के द्वारा श्रीकृष्ण की महत्ता का प्रतिपादन सुनकर भी इन्द्र का उन्हें पारिजात देने को उद्यत न होना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवराज इन्द्र का यह वचन सुनकर वक्ताओं में श्रेष्ठ नारद जी ने एकान्त में उनसे इस प्रकार कहा- ‘देवेश्वर! अवश्य ही राजाओं से वे ही बात कहनी चाहिये, जो उन्हें प्रिय लगे; इसमें संशय नहीं है तथापि जिसका अवसर प्राप्त हुआ हो, ऐसा हितकारक वचन तो अप्रिय होने पर भी उनसे कह देना ही उचित है। जो उत्तम लोक गति के तत्त्व का ज्ञाता है और नीति के विज्ञान में भी कुशल है, ऐसा पुरुष बिना कहे-सुने कहीं अगुआ न बने, यह बुद्धिमान पुरुषों का कथन है। कर्तव्याकर्तव्य की समस्या खड़ी होने पर प्राय: तुम मुझसे पूछते और सलाह लेते हो, इसलिये इस समय भी मैं तुमसे कुछ कहूंगा। यदि अच्छा लगे तो इसे काम में लाना।

जो राजा की पराजय नहीं चाहता और किस बात में उसका हित है, यह अच्छी तरह जानता है- ऐसे सुहृद को बिना कहे भी न्यायसंगत और समयोचित हितकर वचन अवश्यक कहना चाहिये। सत्पुरुषों को उचित है ‍कि वे सर्वथा हित की ही बात बतायें, भले ही वह सुनने में अप्रिय हो। यही स्नेह से उऋण होने का उपाय है, जिसका श्रेष्ठ पुरुषों ने ही प्राचीन काल से आदर किया है। जो असत्यवादी, धर्म-मर्यादा को भंग करने वाले, किसी का उपदेश सुनने की इच्छा न रखने वाले और सबके अप्रिय (द्वेषपात्र) हैं, ऐसे लोगों से न तो प्रिय बात कहनी चाहिये और न हित की ही। ऐसा कहकर सत्पु‍रुषों ने इन सबकी निन्दा की है।

श्रोताओं में श्रेष्ठ सर्वज्ञ देव! मुझे तुमको सर्वथा हित की बात बतानी है, सुनो और सुनकर मेरे कल्याणकारी वचन का पालन करो। बलासुर का ‍विनाश करने वाले देव! भाइयों अथवा सुहृदों में यदि परस्पर भेद (वैरभाव) हो जाय तो वह शत्रुओं को आनन्द देने वाला होता है, इसमें संशय नहीं है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सुरेश्वर! अपने कल्याण से सम्बन्ध रखने वाले कार्य को जानना चाहिये तथा जो इसके विपरीत हो, उसको भी सदा समझ लेना चाहिये। समझ लेने के बाद जो कार्य आरम्भ करने पर पीछे संताप देने वाला हो, ऐसे कार्य को विद्वान पुरुष कदापि आरम्भ न करे- यही बुद्धिमानों की नीति है। देव! विबुधेश्वर! मैं इस कार्य का परिणाम अच्छा नहीं देखता हूँ। इसमें जो कारण है, उसे ध्यान देकर सुनो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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