हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 113 श्लोक 1-19

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रयोदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण द्वारा ब्राह्मण पुत्रों का आनयन

अर्जुन कहते हैं- तदनन्तर बहुत-से पर्वत-समूहों, सरिताओं और वनों को लाँघकर मैंने वरुणालय समुद्र को देखा। उस समय साक्षात समुद्र ने भगवान जनार्दन को अर्घ्य निवेदन किया और हाथ जोड़ खड़ा होकर कहा- 'प्रभो! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?' समुद्र द्वारा अर्पित की हुई पूजा को ग्रहण करके भगवान जनार्दन ने कहा- ‘नदीपते! मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे मेरे रथ के लिये मार्ग दे दो’। तब समुद्र ने हाथ जोड़कर गरुड़ध्वज श्रीकृष्ण से कहा- 'भगवन! प्रसन्न होइये। इस तरह मेरे भीतर मार्ग न बनाईये, नहीं तो दूसरे लोग भी इसी तरह आया-जाया करेंगे। जनार्दन! पहले आपने ही मुझे इस रूप में प्रतिष्ठित किया है। मैं अगाध हूँ। जब आप मेरे भीतर मार्ग बना देंगे, तब मैं सबके लिये गमनीय (लाँघ जाने के योग्‍य) हो जाऊँगा। फिर तो अभिमान से मोहित हुए दूसरे राजा भी मुझे इसी तरह लाँघ जाया करेंगे। गोविन्द इस बात का विचार करके जो उचित हो वह कीजिये।'

भगवान श्रीकृष्ण बोले- 'सागर! तुम इस ब्राह्मण के लिये और मेरे लिये भी मेरी इस बात को मान लो, मेरे सिवा दूसरा कोई पुरुष तुम्हें नहीं लाँघ सकेगा।' तब शाप के डर से डरे हुए समुद्र ने पुन: जनार्दन से कहा- 'बहुत अच्‍छा, ऐसा ही होगा।' श्रीकृष्ण! केशव! यह लीजिये, मैं आपके मार्ग को सुखाये देता हूँ, जिससे कि आप सारथी और ध्वज सहित रथ के द्वारा यात्रा करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण बोले- 'सरित्पते! मैंने पूर्वकाल में तुम्हें वर दिया है कि तुम कभी सूखोगे नहीं। मनुष्य तुम्हारे भीतर रखे हुए नाना प्रकार के रत्नों के ढेरों को न जान सकें, इसके लिये तुम केवल अपने जल को स्तम्भित कर लो। साधो! ऐसा करने से मैं रथ पर बैठा हुआ तुम्हारे ऊपर से चला जाऊँगा और कोई मनुष्य तुम्हारे रत्नों का प्रमाण नहीं जान सकेगा।' तब समुद्र ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी बात स्वीकार कर ली। फिर हम सब लोग स्तम्भित हुए जल के मार्ग से चले। वह मार्ग भूमि पर स्थित प्रकाशमान मणियों की प्रभा से उद्भासित हो रहा था।

तत्पश्चात समुद्र को पार करके हम उत्तर कुरु में जा पहुँचे। फिर एक ही क्षण में गन्धमादन पर्वत को भी लाँघ गये। तदनन्तर जयन्त, वैजयन्त, नील, रजतपर्वत, महामेरु, कैलाश और इन्द्रकूट नाम वाले सात पर्वत भगवान श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने नाना प्रकार के अद्भुत रूप-रंग धारण किये थे। उस समय गोविन्द की सेवा में उपस्थित हो वे सब-के-सब कहने लगे- 'भगवन्! हम आपकी क्या सेवा करें?' तब मधुसूदन ने विधिपूर्वक उन सबका सत्कार ग्रहण किया। प्रणाम करके विनीत भाव से खड़े हुए उन पर्वतों से हृषीकेश ने इस प्रकार कहा- 'पर्वतों! मैं एक गूढ़ स्थान में जा रहा हूँ। वहाँ जाने के लिये आज मेरे रथ को मार्ग प्रदान करो।' भरतश्रेष्ठ! भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके उन पर्वतों ने जाते समय उन्हें इच्छानुसार मार्ग दे दिया। फिर वे सब-के-सब वहीं अन्तर्धान हो गये। वह मेरे लिये परम आश्चर्य की बात थी। रथ बिना किसी अटक या रुकावट के आगे बढ़ता जा रहा था, मानो अंशुमाली सूर्य मेघों की घटाओं में अनासक्त भाव से चले जा रहे हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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