हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-15

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण का सत्यभामा को मनाना और सत्यभामा का मानसिक खेद प्रकट करके उनसे तपस्या के लिये अनुमति मांगना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सब कुछ जानने वाले अप्रमेय स्‍वरुप भगवान श्रीकृष्ण नारद जी को रुक्मिणी के साथ बैठा जान किसी दूसरे कार्य के बहाने वहाँ से निकल गये। वहाँ से निकलकर वे बड़ी उतावली के साथ सत्यभामा के विशाल भवन में गये, जिसे रैवतक पर्वत के रमणीय शिखर पर साक्षात विश्वकर्मा ने बनाया था। सत्राजित की पुत्री सत्यभामा उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय एवं आदरणीय थीं, परंतु वे स्वभाव से मानिनी थीं, इस बात को जानकर श्रीकृष्ण धीरे-धीरे उनके भवन में घुस गये। मधुसुदन स्नेहवश देवी सत्यभामा के रुठी होने का विचार करते हुए भयभीत से होकर धीरे-धीरे उनके महल में गये। अपने साथ आये हुए सेवक को दरवाजे पर खड़े रहने का आदेश दे और नारद जी के सत्कार के लिये प्रद्युम्न को नियुक्त करके वे इस महल के भीतर प्रविष्ट हुए। उन्होंने दूर से अपनी प्रिया सत्यभामा को कोपभवन के भीतर गयी हुर्इ देखा।

वे क्रोधवश लम्बी सांस खींच रही थीं और दासी की भाँति वहाँ पड़ी थीं। अपने मुखारविन्द पर नखों से कुचला हुआ एक कमल सटाये वे बारम्बार उच्छ्वास लेती और कभी-कभी हंस पड़ती थीं। उनके चरण का अग्रभाग कुछ आकुल एवं चञ्चल-सा हो रहा था। उस चरण के द्वारा वे पृथ्वी पर रेखा-सी खींचती और पीछे की ओर मुंह मोड़कर बार-बार घूमती थीं। फिर बायें करकमल पर अपने मुखारविन्द को रखकर वे किसी चिन्ता में डूब जाती थीं। उनके सारे अंग अत्यन्त मनोहर थे। नेत्र कमलों की शोभा को छीन लेते थे। वे एक सुन्दरी वनिता थीं। दासी के हाथ से सरस चन्दन लेकर वे सती साध्वी सत्यभामा पहले तो उस चन्दन की प्रशंसा करके उस दासी के हृदय को आह्लादित कर देतीं; परंतु पुन: निर्दयतापूर्वक उसको झिड़कने और फटकारने लगती थीं। शय्या से बार-बार उठकर फिर वहीं गिर पड़ती थीं। श्री‍हरि ने अपनी प्रियतमा की वे तथा और भी बहुत-सी चेष्टाएं देखीं।

जब उन्होंने अपने मुंह को वस्त्र से ढककर तकिये पर रखा, तब यही उपयुक्त अवसर हैं- ऐसा सोचकर श्रीकृष्ण उनके पास चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने संकेत से दासियों को समझा दिया कि मेरे आने की बात इन्हें बताना मत। दासियों का शंकित होकर इधर-उधर जाना भी रोक दिया। उस दशा में उन्होंने सत्यभामा का अनुसरण किया (अर्थात वे उनके पीछे जाकर खड़े हो गये)। बगल में खड़े हो हाथ में व्यंजन लेकर धीरे-धीरे हवा करने और मुस्कराने लगे। उस समय पारिजात-पुष्प के संसर्ग से सुवासित हुए भगवान श्रीकृष्ण एक ऐसी दिव्य सुगन्ध धारण करते थे, जो मनुष्य में दुर्लभ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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