हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 125 श्लोक 1-18

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण के जृम्भास्त्र से भगवान शंकर का जँभाई के वशीभूत होना, ब्रह्मा जी के द्वारा शिव जी को विष्णु के साथ उनकी एकता का स्मरण दिलाना तथा ब्रह्मा जी के पूछने पर मार्कण्डेय जी का हरिहर की एकता स्थापित करते हुए माहात्म्य सहित हरिहरात्मक स्तोत्र का वर्णन करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वैष्णवास्त्र का प्रयोग होने पर जब सम्पूर्ण जगत में अन्धकार छा गया और भगवान शंकर उसके तेज से जलने-से लगे, उस समय उस अस्त्र से आच्छादित होने के कारण न नन्दी, न रथ और न रुद्रदेव ही दिखायी देते थे। तब रोष और बल से त्रिपुरान्तकारी भगवान शिव का शरीर दुगुना दमक उठा। उन्होंने चार फल वाला बाण अपने हाथ में लिया। वे भगवान त्रिलोचन उस बाण को धनुष पर रखकर छोड़ना ही चाहते थे कि सबके मन की बात जानने वाले महात्मा वासुदेव ने उनके मनोभाव को समझ लिया। फिर तो शीघ्रकारी महाबली पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र उठाया और उसके द्वारा महादेवजी को जृम्भ से अभिभूत कर दिया। इससे भगवान शिव शीघ्र ही धनुष और बाण लिये जँभाई लेने लगे, असुरों और राक्षसों पर विजय पाने वाले भगवान शिव को उस समय सुध-बुध न रही। धनुष और बाण सहित आत्मस्वरूप शिव को जँभाई के वशीभूत हुआ देख बलोन्मत्त बाणासुर बारम्बार उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करने लगा।

तब सम्पूर्ण भूतों के आत्मा महाबली भगवान श्रीकृष्ण ने स्निग्‍ध गम्भीर वाणी में सिंहनाद किया और जोर-जोर से शंख बजाया। पांचजन्य शंख के गम्भीर घोष से, शांर्ग धनुष की टंकार से तथा महादेव जी को जृम्भा के वशीभूत देखकर समस्त प्राणी थर्रा उठे। इसी बीच में रुद्रदेव के पार्षदों ने माया युद्ध का आश्रय ले रणभूमि में प्रद्युम्न को घेर लिया। पंरतु पराक्रमी मकरध्वज प्रद्युम्न ने उन सबको निद्रा के वशीभूत करके वहाँ बाण समूहों द्वारा महाबली दानवों का जिनमें- प्रमथगणों की संख्‍या अधिक थी- विनाश कर डाला। तदनन्तर अनायास ही महान कर्म करने वाले तथा जृम्भा के वशीभूत हुए महादेव जी के मुख से एक आग की ज्वाला प्रकट हुई, जो सम्पूर्ण दिशाओं को दग्‍ध करती हुई सी प्रतीत होती थी। उस समय उन महात्माओं से पीड़ित हुई पृथ्वी देवी काँपती हुई विश्व स्रष्टा ब्रह्माजी की शरण में गयी। पृथ्वी बोली- देवाधिदेव! महाबाहो! मैं महान ओज (बल-पराक्रम) से पीड़ित हूँ।

भगवान श्रीकृष्‍ण और महादेव जी के भार से आक्रान्त हो पुन: एकार्णव के जल में निमग्‍न हो जाऊँगी- ऐसा जान पड़ता है। पितामह! मैं इस भार को अपने लिये असह्य मानती हूँ, आप इस पर विचार कीजिये। देव! ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मैं हल्की होकर चराचर जगत को धारण कर सकूँ। तब पितामह ब्रह्माजी ने काश्यपी देवी (पृथ्वी) से इस प्रकार कहा- ‘तू दो घड़ी तक किसी प्रकार अपने-आपको रोके रह, फिर शीघ्र ही हल्की हो जायगी। वैशम्यायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब भगवान ब्रह्मा ने रुद्रदेव से मिलकर यह बात कही-(आपकी सम्‍पत्‍त‍ि से ही तो) बड़े-बड़े असुरों का वध आरम्भ किया गया है, फिर आप स्वयं ही असुर वृन्द की रक्षा क्यों करते हैं? महाबाहो! श्रीकृष्ण के साथ आपका युद्ध मुझे अच्छा नहीं लगता। आप श्रीकृष्ण को समझ नहीं रहे हैं, आपका आत्मा ही (श्रीकृष्ण बनकर) दो रूपों में विभक्त हो गया है। ब्रह्मा जी के इस प्रकार कहने पर अविनाशी प्रभु भगवान शिव शरीर के भीतर अन्त:करण में ध्यान लगाकर हृदय स्थित ब्रह्म में प्रविष्ट हो, तीनों लोकों के समस्त चराचर प्राणियों का साक्षात्कार करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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