हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 110 श्लोक 1-22

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

साम्‍ब की उत्‍पत्ति और अस्‍त्र शिक्षा तथा द्वारका में पधारे हुए राजाओं के बीच नारद जी के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की परम धन्‍यता का प्रतिपादन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! आत्‍मघाती शम्‍बरासुर ने जब प्रद्युम्न का अपहरण किया था, उसी महीनें में जाम्बवती के गर्भ से साम्‍ब का जन्‍म हुआ। बलराम जी ने साम्‍ब को बचपन से ही अस्‍त्र-शस्‍त्रों के अभ्‍यास में लगा रखा था। बलराम जी के बाद साम्‍ब ही उनके जैसे अस्‍त्र-शस्‍त्रों के ज्ञाता थे, इसलिये समस्‍त वृष्णिवंशी वीर उनका बड़ा सम्‍मान करते थे। साम्‍ब के जन्‍म लेने के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण अपने शत्रुभूत सामन्‍तों का संहार करके शुभस्‍वरूपा द्वारकापुरी में रहने लगे; जैसे कोई देवता इन्‍द्र के उद्यान नन्‍दवन में निवास करता हो। यदुवंशियों की सम्‍पत्ति देखकर देवराज इन्‍द्र अपनी राज्‍यलक्ष्‍मी से द्वेष करने लगे थे। भगवान श्रीकृष्ण के भय से राजाओं को कभी शान्ति नहीं मिलती थी। किसी समय हस्तिनापुर में दुर्योधन के यज्ञ में भूमण्‍डल के समस्‍त राजा एकत्रित हुए। वहाँ यदुवं‍शियों की राज्‍य-लक्ष्‍मी, पुत्र सहित भगवान श्रीकृष्ण तथा समुद्र के भीतर बसी हुई द्वारकापुरी की विशेष चर्चा सुनकर अपने दूतों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के साथ संधि स्‍थापित करके, पृथ्‍वी के समस्‍त भूपाल यादवों की राजलक्ष्‍मी का दर्शन करने के लिये द्वारका में भगवान हृषीकेश के पास उनके निवास-मन्दिर में आये। धृतराष्ट्र की आज्ञा के अधीन रहने वाले दुर्योधन आदि सब भाई, पाण्‍डवों को अगुआ बनाकर चलने वाले धृष्टद्युम्न आदि नरेश, पाण्‍ड्य, चोल और कलिंगदेश के भूपाल, बाहृीक, द्राविड और खश देशों के राजा अठारह अक्षौहिणी सेनाऐं साथ लिये श्रीकृष्ण की भुजाओं से सुरक्षित यादवपुरी में आये।

वे भूमिपाल रैवतक पर्वत को चारों ओर से घेरकर अपने-अपने लिये निश्चित की हुई एक-एक योजन की भूमि में डेरा डालकर बस गये। तदनन्‍तर कमलनयन श्रीमान हृषीकेश यादव शिरोमणियों के साथ पुरी से निकलकर उन नरेन्‍द्रों के समीप गये। उन नरदेवों के बीच में बैठे हुए यदुश्रेष्ठ मधुसूदन शरत्‍काल के सूर्य की भाँति शोभा पाने लगे। वहाँ स्‍थान और अवस्‍था के अनुसार शिष्टाचार का निर्वाह करके भगवान श्रीकृष्ण सोने के सिंहासन पर विराजमान हुए। फिर वे नरेश भी नाना प्रकार के सिंहासनों पर विचित्र पीठों पर यथा स्‍थान बैठे। वहाँ उस समय यादव नरेशों का समाज ब्रह्माजी की सभा में एकत्र हुए देवताओं और असुरों के समाज की भाँति शोभा पाने लगा। उस राज समाज में वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के सुनते हुए उन यादवों और भूपालों में विचित्र बातें होने लगीं। इसी बीच में मेघों की गर्जना के समान सनसनाहट पैदा करती हुई प्रचण्‍ड वायु चलने लगी।

घोर दुर्दिन छा गया। बिजली चमकने और गड़गड़ाहट पैदा करने लगी। उस दुर्दिनतल अर्थात मेघों के आवरण को भेदकर नारद जी दिखायी दिये, उन्‍होंने अपने सिर पर बढ़े हुए जटाभार को लपेट रखा था, उनकी एक भुजा में वीणा थी। वे समुद्र के समान गम्‍भीर और अग्नि-शिखा के समान तेजस्‍वी नारद मुनि जो देवराज इन्‍द्र के मित्र हैं, उन नरेशों के बीच में उतरे। मुनिवर नारदजी के भूमि पर उतर आने पर महान मेघों की घटा से छाया हुआ वह अद्भुत दुर्दिन तत्‍काल दूर हो गया। सागर सदृश गम्‍भीर स्‍वभाव वाले नारद मुनि ने उन नरेशों के मध्‍य भाग में प्रवेश करके सिंहासन पर बैठे हुए अविनाशी यदुश्रेष्ठ से इस प्रकार कहा- 'महाबाहो! बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्‍य ही देवताओं में एकमात्र आप ही पुरुषोत्तम हैं और आप ही धन्‍य हैं, संसार में दूसरा कोई ऐसा नहीं है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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