हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षडशीतितम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवादअन्धकासुर की उत्पत्ति और अनाचार, उसके वध के लिये ऋषियों का विचार, नारद जी का मन्दार पुष्पों की माला धारण करके अन्धक के यहाँ जाना और उससे मन्दार वन के महत्त्व बताना जनमेजय ने कहा- मुनिवरों में उत्तम वैशम्पायन जी! षट्पुर वध का यह रमणीय प्रसंग मैंने सुन लिया। अब पहले जिसकी चर्चा हुई थी, उस अन्धक वध का वृत्तान्त मुझे बताइए। वक्ताओं में श्रेष्ठ! भानुमती के हरण का तथा उस अवसर पर किये गये निकुम्भ वध का प्रसंग भी सुनाइये; क्योंकि वह सब सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतुहल है। वैशम्पायन जी बोले- राजन! पहले की बात है, प्रभावशाली भगवान विष्णु के द्वारा जब सभी पुत्र मारे गये, तब देवी दिति ने तपस्या के द्वारा मरीचिनन्दन कश्यप जी की आराधना की। भरतनन्दन! उनकी समयोचित तपस्या, सेवा, अनुकूल बर्ताव तथा माधुर्य से तपोधन कश्यप जी बहुत संतुष्ट हुए और उनसे बोले- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाली कल्याणी! मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूँ, तुम कोई वर मांगो’। दिति बोली- 'भगवन्! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ! देवताओं ने मेरे सभी पुत्रों को मार डाला है; अत: मैं एक ऐसा अमित पराक्रमी पुत्र चाहती हूँ, जो देवताओं के लिये अवध्य हो।' कश्यप जी ने कहा- 'देवि! दाक्षायणी! कमललोचने! तुम्हारा पुत्र देवताओं के लिये अवध्य होगा, इसमें कोई संशय नहीं है। किंतु देवाधिदेव रुद्र को छोड़कर दूसरा कोई देवता उसे नहीं मार सकेगा, क्योंकि उन पर मेरा प्रभुत्व नहीं चल सकता।' अत: तुम्हारे पुत्र को सर्वथा उनसे अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिये। ऐसा कहकर सत्यवादी कश्यप जी ने अपनी अंगुली से देवी दिति के उदर का स्पर्श किया; इससे उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया। कुरूनन्दन! उसके एक हजार भुजाएं, उतने ही मस्तक, दो सहस्र नेत्र तथा उतने ही चरण थे। भारत! वह अन्धा नहीं था तो भी अन्धे के समान चलता था; अत: वहाँ के निवासी उसे अन्धक नाम से पुकारने लगे। भरतनन्दन! मैं अवध्य हूँ, ऐसा समझकर वह सब लोगों को सताने लगा। अपने बल के भरोसे वह (सब जगह से) सभी रत्नों को हर लाता था। समस्त लोकों को भय देने वाला वह दैत्य अत्यन्त शक्तिशाली होने के कारण अपने बल से अप्सराओं को पकड़कर अपने घर में रखता था। पापपूर्ण विचार रखने वाले अन्धक ने मोहवश परस्त्रियों के अपहरण करने और पराये धन को लूट लाने का धंधा सदा के लिये अपना लिया। भारत! एक बार अन्धक सबका तिरस्कार करने वाले बहुत-से सहायक असुरों के साथ तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने को उद्यत हुआ। वह समाचार सुनकर ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने अपने पिता कश्यप से कहा- ‘मुनिश्रेष्ठ! अन्धकासुर ने ऐसा कार्य आरम्भ किया है। प्रभो! हम लोगों का क्या कर्तव्य है, उसके लिये आज्ञा दीजिये। मुने! छोटे भाई का यह दुराचार मुझसे कैसे सहा जायगा? प्रभो! यह मौसी जी का प्रिय पुत्र है। इस पर मैं कैसे प्रहार कर सकता हूँ? अपने पुत्र के मेरे द्वारा मारे जाने पर पूजनीया मौसी यहाँ मुझ पर क्रोध करेंगी’। देवराज की यह बात सुनकर कश्यप मुनि ने कहा- ‘देवेन्द्र! मैं अन्धक को सर्वथा रोक दूँगा। तुम्हारा कल्याण हो’। भरतनन्दन! तदनन्तर कश्यप जी ने दिति के साथ जाकर वीर अन्धक को बड़ी कठिनाई से त्रिभुवन विजय के उद्योग से रोका। उनके मना करने पर भी वह दुष्टात्मा उन-उन उपायों से स्वर्गवासी देवताओं को मथकर सताता ही रहा। उस दुर्बुद्धि ने नन्दनवन के वृक्षों और उद्यानों को उजाड़ डाला। उच्चै:श्रवा के वंशज अश्वों को वह स्वर्ग से बलपूर्वक हांक लाया। भारत! वर के घमंड में भरा हुआ वह दैत्य देवताओं के देखते-देखते दिग्गज की संतान भूत दिव्य हाथियों को बलपूर्वक हर लाता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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