हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 100 श्लोक 1-18

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: शततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्‍ण का समस्‍त यादवों से मिलकर उन्‍हें सम्‍मानित करने के लिये सभा में बुलाना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर भगवान वासुदेव ने गरुड़ की पूजा और समादर करके उन्‍हें एक मित्र की भाँति अपनाकर घर लौटने की आज्ञा दी। आकाशचारी पक्षी गरुड़ सत्‍कारपूर्वक जाने की आज्ञा पाकर भगवान जनार्दन को प्रणाम करके अपनी इच्छा के अनुसार ऊपर को उड़े। वे अपने पंखों की हवा से मकरालय समुद्र को विक्षुब्‍ध करके बडे वेग से पूर्ववर्ती महासागर की ओर चले। आवश्‍यकता के समय मैं पुन: उपस्थित हो जाऊँगा। ऐसा कहकर जब गरुड़ चले गये, तब श्रीकृष्‍ण ने अपने बूढ़ पिता आनकदु‍न्‍दुभि (वसुदेव) दर्शन किया। तत्‍पश्‍चात वे राजा उग्रसेन, भाई बलदेव, सात्यकि, काश्‍य देश में उत्‍पन्‍न हुए गुरु सान्‍दीपनि तथा ब्रह्मगार्ग्‍य से भी मिले। फिर दूसरे-दूसरे बड़े-बूढ़े वृष्णिवंशियों, भोजों और अन्‍धकों से भी उन्‍होंने भेंट की। तत्‍पश्‍चात अपने पराक्रम द्वारा प्राप्‍त हुए रत्‍न समूहों से उन्‍होंने समस्‍त यादवों का सत्‍कार किया। समस्‍त ब्रह्मद्रोही असुर मारे गये। अन्‍धक और वृष्णिवंश के वीरों की विजय हुई तथा ये भगवान मधुसूदन युद्ध से सकुशल लौट आये, इनके शरीर पर कहीं कोई चोट नहीं आयी है। इस प्रकार विशुद्ध सोने के कुण्‍डलों से अलंकृत तथा राजाज्ञा घोषित करने वाला चाक्रिक पुरुष भली-भाँति सम्‍मानित हो द्वारका के चौराहों और सड़कों पर राज घोषणा सुनाने लगा। तत्‍पश्‍चात विनयशील जनार्दन ने पहले सान्‍दीपनि के पास जा उनके चरण छूकर फिर वृष्णिवंशी नरेश राजा उग्रसेन को प्रणाम किया।

इसके बाद इन्‍द्र के छोटे भाई श्रीकृष्‍ण ने बलराम जी के साथ जाकर पिता के चरणों में प्रणाम किया। उस समय पिता वसुदेव के नेत्रों में प्रेम के आँसू भर आये और उनका हृदय आनन्‍द के समुद्र में निमग्‍न हो गया। फिर शेष यादवों के पास जाकर उनका यथायोग्‍य सत्‍कार करके भगवान श्रीकृष्‍ण ने सभी दशार्हवंशियों के नाम लेकर उन्‍हें बुलाया। तब श्रीकृष्‍ण आदि सब यादव उस समय उन सभी सर्वरत्‍नमय दिव्‍य एवं श्रेष्‍ठ आसनों पर बैठे। तदनन्‍तर किंकर नाम राक्षस जिसे ले आये थे, उस अक्षय धन को श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से सेवकगण सभा में ले आये। इसके बाद यदुकुलतिलक जनार्दन ने समस्‍त दाशार्हों का दुन्‍दुभिनाद के द्वारा पूजन करते हुए उन सबका सम्‍मान किया। श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से वे समस्‍त यादव उस रमणीय सभा में प्रविष्‍ट हुए, जिसमें सदस्‍यों के बैठने के लिये आसन सजाये गये थे तथा जिसके बाहरी दरवाजे मणि और मूँगों के बने हुए थे। भरतभूषण! वह शुभ सभा सब ओर से पुरुषसिंह यादवों द्वारा भरी हुई एवं सभी पदार्थों और गुणों से सम्‍पन्‍न थी। जैसे सिंहों से पर्वत की गुफा सुशोभित होती है, उसी प्रकार उन यादवों से उस सभा की अधिकाधिक शोभा हो रही थी। राजा उग्रसेन तथा भोज और वृष्णिवंश के श्रेष्‍ठ पुरुषों को अपने आगे रखकर बलराम सहित भगवान श्रीकृष्‍ण सुवर्ण के बने हुए विशाल सिंहासन पर आसीन थे। वहाँ बैठे हुए उन यदुश्रेष्‍ठ वीरों को उनकी अवस्‍था और प्रीति के अनुसार सम्‍बोधित करके पुरुषोत्‍तम श्रीकृष्‍ण उनसे इस प्रकार बोले।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में सभा प्रवेश विषयक सौवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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