हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-21

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचविंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

अक्रूर का व्रज में आकर भगवान श्रीकृष्ण को देखना और उनके विषय में अनेक प्रकार की बातें सोचना


वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस दिन जब सूर्यदेव अस्‍ताचल को जाने लगे, उनकी किरणें मन्द हो गयी, पश्चिम के आकाश में संध्‍या की लाली छा गयी, चन्द्रमा का श्‍वेत-पीत मण्‍डल उदित होने लगा, पक्षी अपने नीड़ों (घोसलों) में विश्राम करने लगे, श्रेष्ठ याज्ञिकों ने जब अग्नि प्रज्‍वलित कर दी, सम्पूर्ण दिशाएं सब ओर से जब कुछ-कुछ अन्धकार से आवृत्त हो गयी, वृजवासी सोने की तैयारी करने लगे, गीदड़ियां बोलने लगी, मांसाहार की अभिलाषा रखने वाले निशाचर हर्ष में भर गये, धूप से तपे हुए इन्द्र गोप नामक कीड़ों को आनन्द देने वाला और वेदों के स्‍वाध्‍याय को बंद करने वाला प्रदोष काल जब आ पहुँचा, जब सूर्यदेव संध्‍यारूपिणी गुफा में प्रविष्ट हो गये, जब गृहस्‍थों के लिये हवनीय घृत या दुग्‍ध को आग पर रखने की वेला आ पहुँची वनवासी वैसाख (वानप्रस्‍थ) जब मन्त्रों द्वारा अग्नि में आहुति देने लगे, जब गौएं वन से लौटकर व्रज में आ गयीं और उनका दूध दुह लिया गया, जिनके बछड़े बँधे थे और जो स्‍वयं भी लम्बी रस्सियों में आबद्ध थीं, वे धेनुएं जब बार-बार रँभाने लगीं, गौओं को बुलाते हुए गोपगण जब सब ओर कोलाहल करने लगे, जब बांधने के लिये गौओं को हांककर ले जाया जाने लगा; काष्ठ के भार से झुके हुए कंधों वाले गोप जब घर आकर सब ओर फैले हुए सूखे गोबर के चूरों को सुलगाने या प्रज्‍वलित करने लगे, किंचित उदित हुए चन्द्रदेव जब अपनी मन्द किरणों से ही प्रकाशित हो रहे थे, दिन चले जाने पर थोड़ी-सी ही रात का आगमन हुआ था, दिन की पूर्ण समाप्ति होकर रात्रि के प्रथम प्रहर का अभी आरम्भ ही हुआ था, सूर्य का उष्ण प्रकाश अस्‍त होकर चन्द्रमा का शीतल प्रकाश उपस्थित हुआ था, जिस समय अग्निहोत्र की सुगन्धि सब ओर व्‍याप्‍त हो रही थी, स्‍वभावत: सौम्य चन्द्रदेव उदित हुए, जब सम्पूर्ण जगत में अग्‍नीषोमात्मक संधि का समय वर्तमान था, जब पश्चिम में अग्नि के समान संध्‍याकाल का अरुण प्रकाश फैला था तथा पूर्व में भी लाल कमल के समान कान्ति वाले चन्द्रमा की कुमकुम- जैसी प्रभा फैली हुई थी और उन दोनों दिशाओं के अरुण प्रकाश से जब आकाश उभय पार्श से दग्ध हुए पर्वत के समान प्रतीत हो रहा था और उसमें कुछ-कुछ तारे प्रकट हो गये थे, ऐसे समय में घर लौटने की इच्‍छा वाले पथिकों को बन्धुओं से समागम होने की सूचना-सी देने वाले पक्षियों के साथ-साथ दानपति अक्रूर अपने रथ के द्वारा शीघ्र ही व्रज में आ पहुँचे।

व्रज में प्रवेश करते ही अक्रूर वहाँ के लोगों से बारम्बार श्रीकृष्ण, रोहिणीनन्दन बलराम तथा नन्दगोप का निवास-स्‍थान पूछने लगे। तत्पश्चात देवोपम कान्ति से युक्‍त महाबली अक्रूर उस रथ से उतरकर निवास के लिये नन्दगोप के घर में प्रविष्ट हुए। उस समय उनके मुख पर पूर्ण हर्ष छा रहा था, नेत्रों से प्रेम के आंसू बह रहे थे, नन्द के द्वार पर पदार्पण करते ही उन्होंने देखा, गौओं के दुहने के स्‍थान में श्रीकृष्ण बहुत-से बछड़ों के बीच में खड़े हैं। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो बछड़ों सहित सांड़ खड़ा हो। उन्हें देखते ही धर्मज्ञ अक्रूर हर्षभरी गद्गद वाणी द्वारा बोले- 'तात केशव! यहाँ आओ।' (कुछ ही वर्ष पहले) जिन्हें शैशवास्‍था में उत्तान सोते देखा- सुना था, उन्हीं श्रीकृष्ण को पुन: अनुपम शोभा से सम्पन्न अव्‍यक्‍त यौवन-अवस्‍था में देखकर अक्रूर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। ये ही वे सिंह और व्‍याघ्र के समान प्रतीत होती है। उनका श्रीवत्सविभूषित वक्ष:स्‍थल युद्ध में अजेय है और भुजाएं शत्रुओं का संहार करने में कुशल हैं। इन भुजाओं तथा वक्ष:स्‍थल से इनके श्रीविग्रह की बड़ी शोभा हो रही है। ये ही वे मूर्तिमान रहस्‍यात्मा (उपनिषदों में प्रतिपादित पुरुषोत्तम) हैं, जो इस संसार की अ‍ग्रपूजा पाने के प्रथम अधिकारी हैं। वे भगवान विष्णु ही यहाँ गोपवेश धारण करके प्रकट हुए हैं। इनकी रोमावलि ऊपर की ओर उठी हुई और परम पवित्र है (अर्थात यह प्रेमी भक्तों को देखते ही रोमांचित हो उठते हैं)।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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