हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 63-76 का हिन्दी अनुवाद
केशव! उग्रसेनकुमार कंस के मारे जाने पर अब आप यादवों के संरक्षण के रूप में मुख्य पद पर प्रतिष्ठित होंगे; तब सब ओर राजाओं का वह महान युद्ध आरम्भ हो जायगा। आपके कर्म (या पराक्रम) की कहीं तुलना नहीं है, अत: पाण्डव लोग आपकी ही शरण लेंगे। राजाओं में भेद के अवसर पर जब युद्ध उपस्थित होगा, उस समय आप पाण्डवों का ही पक्ष लेंगे। जब आप राजासन पर बैठेंगे, तब आपके प्रभाव से राजा लोग अपनी उत्तम एवं शुभ राज्य लक्ष्मी को त्याग देंगे, इसमें संशय नहीं है। जगदीश्वर श्रीकृष्ण! यह मेरा तथा स्वर्गवासी देवताओं का संदेश है, तो श्रुतियों द्वारा गूढ़ रूप से प्रतिपादित है।[1] अब यह जगत में भी विख्यात हो जायगा। प्रभो! मैंने आपका पराक्रम देखा, आपका भी दर्शन किया। साधुवाद! अब मैं जाता हूँ, कंस के मारे जाने पर मैं फिर आपसे मिलूँगा।' ऐसा कहकर नारद जी तत्काल आकाश में चले गये। देव संगीत के उत्पत्ति स्थान नारद जी का पूर्वोक्त वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी बात मान ली, फिर वे गोपों से मिले। गोपगण श्रीकृष्ण से मिलकर उनके साथ ही पुन: व्रज में प्रविष्ट हुए। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में केशी का वध विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उन संदेश प्रतिपादक श्रुतियों में से एक श्रुति, जो महाभारत युद्ध पर प्रकाश डालती है, इस प्रकार है- ‘अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च विवर्तेते रजसी वेद्याभि:। वैश्वानरो जयमानो न राजावातिरज्योतिषाग्निस्तमांसि’ अर्थात एक युद्ध यज्ञ का सम्बन्ध श्रीकृष्ण से है और दूसरे युद्ध यज्ञ का अर्जुन से। उन दोनों ने एक साथ होकर जब कार्य किया, तब उनके द्वारा दो युद्ध यज्ञ सम्पादित हुए। वे दोनों युद्ध यज्ञ रजोगुणी थे; क्योंकि प्राप्य पैतृक सम्पति को निमित्त बनाकर किये गये थे। वैश्वानर अर्थात धर्म संसार में जन्म ग्रहण करके (श्रीकृष्ण और अर्जुन की सहायता से) निश्चय ही राजा हुआ। उसने प्रकाशमान अग्नि की सहायता से असुरों का अन्धकार तिरोहित कर दिया था अर्थात धर्मराज ने खाण्डव-दाह के समय अग्नि के दिये हुए चक्र और गाण्डीव की सहायता से श्रीकृष्ण और अर्जुन के पराक्रम द्वारा असुरों का विध्वंस कराया। (नीलकण्ठ से)
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