केशी

Disamb2.jpg केशी एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- केशी (बहुविकल्पी)

केशी एक दानव था, जो मथुरा के राजा कंस का अनुचर था। वह कश्यप की पत्नी दक्ष की कन्या दनु के गर्भ से उत्पन्न सभी दानवों में अधिक प्रतापी था। 'महाभारत' के अनुसार केशी ने प्रजापति की कन्या दैत्यसेना का हरण करके उससे विवाह कर लिया था। केशी घोड़े का रूप धारण कर श्रीकृष्ण का वध करने आया था, किन्तु वह स्वयं ही भगवान के हाथों मारा गया।

पौराणिक प्रसंग

एक समय सखाओं के साथ कृष्ण गोचारण कर रहे थे। सखा मधुमंगल ने हँसते हुए श्रीकृष्ण से कहा- "प्यारे सखा! यदि तुम अपना मोरमुकुट, मधुर मुरलिया और पीतवस्त्र मुझे दे दो तो सभी गोप-गोपियाँ मुझे ही प्यार करेंगी तथा रसीले लड्डू मुझे ही खिलाएँगी। तुम्हें कोई पूछेगा भी नहीं।"

कृष्ण ने हँसकर अपना मोरपंख, पीताम्बर, मुरली और लकुटी उसे दे दी। अब मधुमंगल इठलाता हुआ इधर-उधर घूमने लगा। इतने में ही महापराक्रमी केशी दैत्य विशाल घोड़े का रूप धारण कर कृष्ण का वध करने के लिए हिनहिनाता हुआ वहाँ उपस्थित हुआ। उसने महाराज कंस से सुन रखा था कि जिसके सिर पर मोरपंख, हाथों में मुरली, अंगों पर पीतवसन देखो, उसे कृष्ण समझकर अवश्य मार डालना। उसने कृष्ण रूप में सजे हुए मधुमंगल को देखकर अपने दोनों पिछले पैरों से आक्रमण किया। कृष्ण ने झपटकर पहले मधुमंगल को बचा लिया। इसके पश्चात् केशी दैत्य का वध किया। मधुमंगल को केशी दैत्य के पिछले पैरों की चोट तो नहीं लगी, किन्तु उसकी हवा से ही उसके होश उड़ गये।

केशी वध के पश्चात् मधुमंगल सहमा हुआ तथा लज्जित होता हुआ कृष्ण के पास गया तथा उनकी मुरली, मयूरमुकुट, पीताम्बर लौटाते हुए बोला- "मुझे लड्डू नहीं चाहिए। प्राण बचे तो लाखों पाये।" ग्वाल-बाल हँसने लगे। आज भी मथुरा स्थित केशीघाट इस लीला को अपने हृदय में संजोये हुए विराजमान है।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! भगवान की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने वृषभासुर को मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगों को शीघ्र-से-शीघ्र भगवान का दर्शन कराते रहते हैं, कंस के पास पहुँच। उन्होंने उससे कहा- "कंस! जो कन्या तुम्हारे हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी थी, वह तो यशोदा की पुत्री थी। और ब्रज में जो कृष्ण हैं, वे देवकी के पुत्र हैं। वहाँ जो बलराम हैं, वे रोहिणी के पुत्र हैं। वसुदेव ने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्द के पास उन दोनों को रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्यों का वध किया है।"

यह बात सुनते ही कंस की एक-एक इन्द्रिय क्रोध के मारे काँप उठी। उसने वसुदेवजी को मार डालने के लिए तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परन्तु नारदजी ने रोक दिया। जब कंस को यह मालूम हो गया कि वसुदेव के लड़के ही हमारी मृत्यु के कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही पति-पत्नी को हथकड़ी और बेड़ी से जकड़कर फिर जेल में डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंस ने केशी को बुलाया और कहा- "तुम ब्रज में जाकर बलराम और कृष्ण को मार डालो।" वह चला गया। इसके बाद कंस ने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतों को बुलाकर कहा- "वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुम लोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो। वसुदेव के दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्द के ब्रज में रहते हैं। उन्हीं के हाथ से मेरी मृत्यु बतलायी जाती है। अतः जब वे यहाँ आवें, तब तुम लोग उन्हें कुश्ती लड़ने-लड़ाने के बहाने मार डालना। अब तुम लोग भाँति-भाँति के मंच बनाओ और उन्हें अखाड़े के चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उन पर बैठकर नगरवासी और देश की दूसरी प्रजा इस स्वच्छंद दंगल को देखें। महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगल के घेरे के फाटक पर ही अपने कुवलयापीड़ हाथी को रखना और जब मेरे शत्रु उधर से निकलें, तब उसी के द्वारा उन्हें मरवा डालना। इसी चतुर्दशी को विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलता के लिये वरदानी भूतनाथ भैरव को बहुत-से पवित्र पशुओं की बलि चढाओ।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ ब्रज में आया। वह अपनी टापों से धरती को खोदता आ रहा था! उसकी गरदन के छितराये हुए बालों के झटके से आकाश के बादल और विमानों की भीड़ तितर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहट से सब-के-सब भय से काँप रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्ष का खोड़र ही हो। उसे देखने से ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादल की घटा है। उसकी नीयत में पाप भरा था। वह श्रीकृष्ण को मारकर अपने स्वामी कंस का हित करना चाहता था। उसके चलने से भूकम्प होने लगता था। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछ के बालों से बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लड़ने के लिये उन्हीं को ढूँढ भी रहा है, तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंह के समान गरजकर उसे ललकारा। भगवान को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाश को पी जायगा।

परीक्षित! सचमुच केशी का वेग बड़ा प्रचण्ड था। उस पर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी। परन्तु भगवान ने उससे अपने को बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीत को कैसे मार पाता। उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँप को पकड़ कर झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गये। थोड़ी ही देर के बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ खड़ा हुआ। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुँह फाड़कर बड़े वेग से भगवान की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँह में इस प्रकार डाल दिया, जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।

परीक्षित! भगवान का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो। उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा। अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा। अब तो दम घुटने के कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया, आँखों की पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देर में उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होने के कारण ही पकी ककड़ी की तरह फट गया। महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने उसके शरीर से अपनी भुजा खींच ली। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। बिना प्रयत्न के ही शत्रु का नाश हो गया। देवताओं को अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न हो-होकर भगवान के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 36, श्लोक 16-26 तथा अध्याय 37, श्लोक 1-9

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