मयूरध्वज

मयूरध्वज द्वापर के अन्त में रत्नपुर के अधिपति थे, जो एक बहुत बड़े धर्मात्मा तथा भगवद्भक्त संत हो गये थे। इनकी धर्मशीलता, प्रजावत्सलता एवं भगवान के प्रति स्वाभाविक अनुराग अतुलनीय ही था। इन्होंने भगवत्प्रीत्यर्थ अनेकों बड़े-बड़े यज्ञ किये थे, करते ही रहते थे।

कथा

एक बार इनका अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छूटा हुआ था और उसके साथ इनके वीर पुत्र ताम्रध्वज तथा प्रधानमंत्री सेना के साथ रक्षा करते हुए घूम रहे थे। उधर इन्हीं दिनों धर्मराज युधिष्ठिर का भी अश्वमेध यज्ञ चल रहा था और उनके सारथि एवं भगवान श्रीकृष्ण साथ थे। मणिपुर में दोनों की मुठभेंड़ हो गयी। उन दिनों भगवान् के सारथ्य और अनेकों वीरों पर विजय प्राप्त करने के कारण अर्जुन के मन में कुछ अपनी भक्ति तथा वीरता का गर्व-सा हो गया था। सम्भव है कि इसीलिये अथवा अपने एक छिपे हुए भक्त की महिमा प्रकट करने के लिये भगवान ने एक अद्भुत लीला रची। परिणामतः युद्ध में श्रीकृष्ण के ही बल पर मयूरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज ने विजय प्राप्त की और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन दोनों को मूर्च्छित करके वह दोनों घोड़ों को अपने पिता के पास ले गया। पिता के पूछने पर मन्त्री ने बड़ी प्रसन्नता से सारा समाचार कह सुनाया। किंतु सब कुछ सुन लेने के पश्चात मयूरध्वज ने बड़ा खेद प्रकट किया। उन्होंने कहा- "तुमने बुद्धिमानी का काम नहीं किया। श्रीकृष्ण को छोड़कर घोड़े को पकड़ लेना या यज्ञ पूरा करना अपना उद्देश्य नहीं है। तुम मेरे पुत्र नहीं, बल्कि शत्रु हो, जो भगवान के दर्शन पाकर भी उन्हें छोड़कर चले आये।"

परीक्षा

इसके बाद वे बहुत पश्‍चात्ताप करने लगे। इधर जब अर्जुन की मूर्च्‍छा टूटी, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से घोड़े के लिये बड़ी व्यग्रता प्रकट की। भगवान अपने भक्त की महिमा दिखाने के लिये स्वयं ब्राह्मण बने और अर्जुन को अपना शिष्य बनाया तथा दोनों मयूरध्वज की यज्ञशाला में उपस्थित हुए। इनके तेज और प्रभाव को देखकर मयूरध्वज अपने आसन से उठकर नमस्कार करने वाले ही थे। कि इन्होंने पहले ही ‘स्वस्ति’ कहकर आर्शीवाद दिया। मयूरध्वज ने इनके इस कर्म को अनुचित बताते हुए इन्हें नमस्कार किया और स्वागत-सत्कार करके अपने योग्य सेवा पूछी। ब्राह्मणवेशधारी भगवान ने अपनी इच्छित वस्तु लेने की प्रतिज्ञा कराकर बतलाया- "मैं अपने पुत्र के साथ इधर आ रहा था कि मार्ग में एक सिंह मिला और उसने मेरे पुत्र को खाना चाहा। मैंने पुत्र के बंदले अपने को देना चाहा, पर उसने स्वीकार नहीं किया। बहुत अनुनय-विनय करने पर उसने यह स्वीकार किया है कि राजा मयूध्वज पूर्ण प्रसन्नता के साथ अपनी स्त्री और पुत्र के द्वारा अपने आधे शरीर को आरे से चिरवाकर मुझे दे दें, तो मैं तुम्हारे पुत्र को छोड़ सकता हूँ।" राजा ने बड़ी प्रसन्नता से यह बात स्वीकार कर ली।

भगवान द्वारा दाहिने अंश की माँग

साध्वी रानी ने अपने को राजा का आधा शरीर बताकर देना चाहा, पर भगवान ने दाहिने अंश की आवश्यकता बतलायी। पुत्र ने भी अपने को पिता की प्रतिमूर्ति बताकर सिंह का ग्रास बनने की इच्छा प्रकट की; पर भगवान ने उसके चीरे जाने की बात कहकर उसकी प्रार्थना भी अस्वीकार कर दी। अन्त में दो खंभे गाड़कर उनके बीच में हंसते हुए और उच्च स्वर में भगवान के ‘गोविन्द’, ‘मुकुन्द’, ‘माधव’ आदि मधुर नामों का सस्वर उच्चारण करते हुए मयूध्वज बैठ गये और उनके स्त्री पुरुष आरा लेकर उनके सिर को चीरने लगे। सदस्यों ने आपत्ति करने का भाव प्रकट किया; परन्तु महाराज ने यह कहकर कि "जो मुझसे प्रेम करते हों, मेरा भला चाहते हों, वे ऐसी बात न सोचें", सब को मना कर दिया।

भगवान का दर्शन

जब उनका शरीर चीरा जाने लगा, तब उनकी बायीं आंख से आंसू की कुछ बूंदें निकल पड़ीं, जिन्हें देखते ही ब्राह्मण देवता बिगड़ गये और यह कहकर चल पड़े कि "दुःख से दी हुई वस्तु में नहीं लेता।" फिर अपनी स्त्री की प्रार्थना से मयूरध्वज ने उन ब्राह्मण देवता को बुलाकर बड़ा आग्रह किया और समझाया कि "भगवन! आंसू निकलने का यह भाव नहीं है कि मेरा शरीर काटा जा रहा है; बायीं आंख में आंसू निकलने का यह भाव है कि ब्राह्मण के काम आकर दाहिना अंग तो सफल हो रहा है, परन्तु बायां अंग किसी के काम न आया। बायीं आंख के खेद का यही कारण है।" अपने परम प्रिय भक्त मयूरध्वज का यह विशुद्ध भाव देखकर भगवान ने अपने-आपको प्रकट कर दिया। शंख-चक्र-गदाधारी, चतुर्भुज, पीताम्बर पहने हुए, मयूरमुकुटी प्रभु ने अभयदान देते हुए उनके शरीर का स्पर्श किया और स्पर्श पाते ही मयूरध्वज का शरीर पहले की अपेक्षा अधिक सुन्दर, हष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ हो गया। वे भगवान के चरणों पर गिरकर स्तुति करने लगे। भगवान ने उन्हें सान्त्वना दी और वर मांगने को कहा। उन्होंने भगवान के चरणों में अविचल प्रेम मांगा और आगे चलकर "वे भक्तों की ऐसी परीक्षा न लें", इसका अनुरोध किया। भगवान ने बड़े प्रेम से सिर पर कठोरता का लांछन लेकर भी अपने भक्त की महिमा बढ़ायी।

अर्जुन उनके साथ-ही-साथ सब लीला देख रहे थे। उन्होंने मयूरध्वज के चरणों पर गिरकर अपने गर्व की बात कही और भक्तवत्सल भगवान की इस लीला का रहस्य अपने घंमड को चूर करना बतलाया। अंत में तीन दिनों तक उनका आतिथ्य स्वीकार करने के पश्चात घोड़ा लेकर वे दोनों चले गये और मयूरध्वज निरन्तर भगवान के प्रेम में छके रहने लगे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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