रोहिणी

Disamb2.jpg रोहिणी एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- रोहिणी (बहुविकल्पी)

रोहिणी वसुदेव की अर्द्धांगिनी तथा बलराम की माता थीं। इन्होंने देवकी के सातवें गर्भ को दैवी विधान से ग्रहण कर लिया था और उसी से बलराम की उत्पत्ति हुई थी। जब यदुवंश का नाश हुआ और दारुक इस समाचार को लेकर द्वारका लौटे, तब वसुदेव-देवकी सहित रोहिणी भी चित्कार करती हुई वहाँ गयीं, जहाँ यदुवंशियों के मृत शरीर पड़े थे। वहाँ जब बलराम तथा कृष्ण, अपने पुत्रों को नहीं पाया, तब वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। रोहिणी की यह मूच्छा फिर नहीं टूटी। रोहिणी के साथ वसुदेव-देवकी की भी यही दशा हुई।

परिचय

जब कश्यप जी ने वसुदेव के रूप में जन्म धारण किया, तब उनकी पत्नी सर्पों की माता कद्रू भी रोहिणी के रूप में उत्पन्न हुई। समय आने पर वसुदेव से रोहिणी का विवाह हुआ। इनके अतिरिक्त पौरवी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि और बहुत-सी पत्नियां वसुदेव जी के थीं।

नन्द आश्रय

जब क्रूर कंस ने वसुदेव-देवकी को कारागार में बंद कर दिया, तब रोहिणी बड़ी व्याकुल हुई; पर कंस से इनको पति-सेवा के लिये कारागार में जाने की आज्ञा मिल गयी। ये वहाँ जाया करती थीं। इससे इनका दुःख बहुत कुछ कम हो गया था। वहीं जब देवकी में सातवें गर्भ का प्रकाश हुआ, तब इनमें भी साथ-ही-साथ गर्भ के लक्षण दीख पड़े। वसुदेव को चिंता हुई कि जैसे यह कंस देवकी के पुत्रों को मार दे रहा है, वैसे ही रोहिणी के पुत्र को भी कहीं शंकावश न मार दे। इस भय से उन्होंने रोहिणी को अपने भाई ब्रजराज नन्द के यहाँ गुप्तभाव से भेज दिया और नन्द ने उन्हें आश्रय दिया।

बलराम जन्म

जब रोहिणी नन्दालय आयी थीं; तब उनके तीन मास का गर्भ था। ब्रजपुर आने के चार मास पश्चात् योगमाया ने गर्भ को तो अन्तर्धान कर ही दिया तथा देवकी के सातवें गर्भ को वहाँ से आकर्षित कर रोहिणी में स्थापित कर दिया। इस प्रकार बलराम की जननी बनने का परम सौभाग्य रोहिणी को प्राप्त हुआ। योगमाया द्वारा गर्भस्थापना के सात मास पश्चात-सब मिलाकर चौदह मास गर्भधारण की लीला हो जाने पर रोहिणी ने श्रावणी पूर्णिमा के दिन, श्रीकृष्ण के जन्म के आठ दिन पूर्व, अनन्त को प्रकट किया। अनन्तरूप बलराम रोहिणी जी के गर्भ से अवतरित हुए।

यशोदा से घनिष्ठता

जिस दिन से रोहिणी नन्दालय पधारी थीं, उसी दिन से यशोदा एवं रोहिणी में इतना प्रेम हो गया था कि मानो दोनों दो देह, प्राण हों। रोहिणी को पाकर यशोदा के आनन्द की सीमा न रही। उनके आनंद का एक यह भी कारण था कि रोहिणी अपने पतिव्रत्य के लिये विख्यात थीं। अतः ब्रजरानी सोचने लगीं- "जब ऐसी सती के चरण घर में आ गये हैं, तब मेरी गोद भी अवश्य भर जायगी।" हुआ भी यही, सती रोहिणी के पधारने पर यशोदा का अंक भी श्रीकृष्णचन्द्र से विभूषित हो ही गया। ब्रजरानी तो रोहिणी के गुणों का देख-देखकर मुग्ध रहतीं। उन्होंने अपने घर का सारा भार रोहिणी जी के हाथ में सौंप रखा था, ब्रजरानी के घर की मालकिन तो रोहिणी ही बन गयी थीं। अस्तु, जब रोहिणी को पुत्र हुआ, तब नन्दालय में सर्वत्र आनंद छा गया। अवश्य ही यह आनंद प्रकट नहीं हुआ। यशोदा रानी जी भरकर उत्सव भी न मना सकीं; क्योंकि भाई वसुदेव का नन्द को यह आदेश मिल चुका था कि रोहिणी के पुत्र जन्म की बात सर्वथा गुप्त रखी जाय।

रोहिणी पहले से ही नन्द दम्पति के व्यवहार को देखकर उन पर न्योछावर थीं। पुत्र होने के अवसर पर जब यह उदारता देखी, तब तो उनका रोम-रोम कृतज्ञता से भर गया। उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। साथ ही पुत्र की छवि देख-देखकर वे आत्मविस्मृत भी होती जा रही थीं। वह छबि ही जो ऐसी थी- समुदित चन्द्र के समान तो उसका मुख था, विद्युत रेखा-जैसी नेत्रों की शोभा थी, उसके सिर पर नवजलधरकृष्ण केश थे; समस्त अंगों की आभा शारदीय शुभ्र मेघ के समान थी। वह बालक सूर्य के समान दुष्प्रधर्ष तेजःशाली था। ऐसे परम सुन्दर बालक को श्रीरोहिणी ने जन्म दिया था। बालक का इस तरह शोभा सम्पन्न होना सर्वथा उपयुक्त ही था; क्योंकि यह अस्थि-मज्जा-भेद-मांसनिर्मित प्राकृत शिशु तो था नहीं, यह तो परम दिव्य बालक था। बालक भी कथन मात्र का ही, वास्तव में तो स्वयं भगवान ब्रजेन्द्रनन्दन का ‘अनन्त’-‘शेष’ नाम से अभिहित रूप ही बालक बनकर आया था। रोहिणी को एक दुःख भूलता न था। वह था पति-वियोग। पुत्र को देखकर वह दुःखभार बहुत कुछ कम हो गया था। फिर भी रह-रहकर भीतर वह स्मृति जाग उठती और राहिणी पति के लिये व्याकुल हो जातीं; किंतु जिस दिन से यशोदानन्दन का जन्म हुआ, जिस क्षण से रोहिणी ने उन्हें देखा, बस, उसी क्षण से रोहिणी मानों सर्वथा बदल गयीं। उनके हृदय की सारी वेदना, सारी जलन यशोदानन्दन के मुखचन्द्र ने हर ली। उनके प्राण शीतल हो गये। ब्रजपुर में आज पहली बार रोहिणी को गोपियों ने वस्त्राभूषण से सुसज्जित देखा।

वसुदेव का बुलावा

ग्यारह वर्ष, छः महीने राम-श्याम की सुन्दर बाल-लीलाओं से झरती हुई दिव्यातिदिव्य रसमन्दाकिनी ब्रजपुर में प्रवाहित होती रही; उसमें निरन्तर अवगाहन पर रोहिणी धन्य होती रहीं। इसके पश्चात राम-श्याम मधुपुर चले गये। कंस का निधन हुआ, वसुदेव कारागार से मुक्त हुए, पुत्रों को हृदय से लगाकर वसुदेव ने छाती ठंडी की। यह होने पर उन्होंने रोहिणी को बुलाने के लिये ब्रजपुर में दूत भेजा। पति का आहवान सुनकर रोहिणी की विचित्र ही अवस्था हुई। वे व्याकुल होकर मन-ही-मन सोचने लगीं- "आह ! एक ओर पति की आज्ञा है, उसे मैं टाल नहीं सकती; अपने दोनों पुत्रों को देखने की इच्छा छोड़ देना भी मेरे वश की बात नहीं। पर, हाय ! श्रीकृष्णजननी यशोदा को भी सहसा कैसे छोड़ दूं। आह ! कदाचित् विधाता मेरे शरीर के दो भाग कर देता-एक नेत्र एवं आधे अवयव एक शरीर में, बचा हुआ नेत्र एवं अवशिष्ट अवयव दूसरे शरीर में, एक तो मधुपुरी के जीवन के लिये एवं एक यहाँ यशोदा की संभाल के लिये-इस क्रम से इस उद्देश्य को लेकर यदि दैव मेरे अंगों को बांट दे, तो ही मैं इस विपत्ति सागर को पार कर सकूंगी। अन्यथा और कोई उपाय नहीं।"

मथुरा आगमन

रोहिणी को अतिशय विषण्ण देखकर यशोदा ने रोकर समझाया- "बहिन ! तेरे प्राण एवं मेरे प्राण तो एक हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि हम दोनों ने क्षणभर के लिये भी राम-श्याम में भेद नहीं देखा। तो बहिन! मेरी बात मान ! मैं मन्दभागिनी तो जा नहीं सकती, तू चली जा। राम-श्याम को देखकर तेरे प्राण शीतल हो जायंगे तथा पुत्रों को देखकर यदि तेरे प्राण रह गये तो मैं भी जी आऊंगी; क्योंकि तेरे-मेरे प्राण सर्वथा अभिन्न हैं। इसके सिवा मेरे प्राण बचाने का और कोई दूसरा उपाय मुझे नहीं दीखता।" वास्तव में रोहिणी जी यही सोचकर मथुरा चली आयीं।

यशोदा से पुनः मिलन

मथुरा से जब वसुदेव को लेकर श्रीकृष्ण द्वारका चले गये, तब रोहिणी भी द्वारका चली गयीं। उनके मन में आनंद तो यह रहना था कि वे निरन्तर राम-श्याम की लीलाएं देखतीं, सुनती; पर जब यशोदा का स्मरण होता, तब प्राणों में टीस चलने लगती, वे फुफकार मारकर रो उठतीं। कुरुक्षेत्र में रोहिणी का यशोदा से पुनः मिलन हुआ था। यशोदा को कण्ठ से लगाकर, उसमें अनन्त गुणों को सबसे कह-कहकर न जाने वे कितनी ही देर तक रोती रहीं।

परमधाम प्रस्थान

एक बार रोहिणी फिर ब्रजपुरी पधारी थीं। दन्तववत्र का विनाश करके जब श्रीकृष्णचन्द्र ब्रजपुर गये, तब उन्होंने बलराम के सहित रोहिणी मैया को बुलाया। रोहिणी मैया अपने पुत्र बलराम के साथ आयीं तथा जब ब्रजेश्वरी यशोदा एवं नन्द अन्तर्धान होने लगे, तब वे भी नित्य लीला की रोहिणी में मिल गयीं। अवश्य ही जनसाधारण की दृष्टि में तो रोहिणी जी ब्रजपुर से लौट आयीं तथा श्रीकृष्णचन्द्र की शेष लीला में योगदान करती रहीं। जब यदुकुल ध्वंस हुआ और दारुक इस समाचार को लेकर द्वारका लौटे, तब वसुदेव-देवकी सहित रोहिणी चित्कार करती हुई वहाँ गयीं, जहाँ यदुवंशियों के मृत शरीर पड़े थे। वहाँ जब बलराम-कृष्ण को-अपने पुत्रों को नहीं पाया, तब वे मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। रोहिणी की यह मूच्छा फिर नहीं टूटी। रोहिणी के साथ वसुदेव-देवकी की भी यही दशा हुई।


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