यशोदा

संक्षिप्त परिचय
यशोदा
यशोदा
पिता सुमुख
माता पाटला
धर्म-संप्रदाय हिन्दू
परिजन नन्द, रोहिणी, बलराम ,कृष्ण
विवाह नन्द
संतान कृष्ण, बलराम
निवास गोकुल
अन्य विवरण भगवान श्रीकृष्ण ने माखन चोरी लीला, ऊखल बंधन लीला, कालिय दमन, गोचारण, धेनुक वध, दावाग्नि पान, गोवर्धन धारण, रासलीला आदि अनेक लीलाओं से यशोदा मैया को अपार सुख प्रदान किया।
संबंधित लेख करवट उत्सव, मईया दाऊ बहुत खिजायो , मृतिका भक्षण लीला, ऊखल बंधन लीला
अन्य जानकारी वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरा ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की - 'देव! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें तो भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अविचल भक्ति हो।' ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर उन्हें वर दिया। इसी वर के प्रभाव से ब्रजमंडल में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से धरा का जन्म यशोदा के रूप में हुआ।

यशोदा को पौराणिक ग्रंथों में नंद की पत्नी कहा गया है। 'भागवत पुराण' में यह कहा गया है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म देवकी के गर्भ से मथुरा के राजा कंस के कारागार में हुआ था। कंस से रक्षा करने के लिए जब वासुदेव जन्म के बाद आधी रात में ही उन्हें यशोदा के घर गोकुल में छोड़ आए तो उनका पालन पोषण यशोदा ने किया। भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में बालक कृष्ण की लीलाओं के अनेक वर्णन मिलते हैं, जिनमें यशोदा को ब्रह्मांड के दर्शन, माखनचोरी और उसके आरोप में ऊखल से बाँध देने की घटनाओं का सूरदास ने सजीव वर्णन किया है। यशोदा ने बलराम के पालन पोषण की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो रोहिणी के पुत्र और सुभद्रा के भाई थे। उनकी एक पुत्री का भी वर्णन मिलता है, जिसका नाम 'एकांगा' था।

परिचय

मुक्तिदाता भगवान से जो कृपाप्रसाद नन्दरानी यशोदा मैया को मिला, वैसा न ब्रह्मा को, न शंकर को, न अर्धागिनी लक्ष्मी जी को ही कभी प्राप्त हुआ। वसुश्रेष्ठ द्रोण ने पद्मयोनि ब्रह्मा से यह प्रार्थना की- "देव! जब मैं पृथ्वी पर जन्म धारण करूं, तब विश्वेश्वर स्वयं भगवान श्रीहरि श्रीकृष्णचन्द्र में मेरी परम भक्ति हो।" इस प्रार्थना के समय द्रोणपत्नी धरा भी वहीं खड़ी थीं। धरा ने मुख से कुछ नहीं कहा; पर उनके अणु-अणु में भी यही अभिलाषा थी, मन-ही-मन धरा भी पद्मयोनि से यही मांग रही थीं। पद्मयोनि ने कहा- "तथास्तु-ऐसा ही होगा।" इसी वर के प्रताप से धरा ने ब्रजमण्डल के एक सुमुख नामक गोप एवं उनकी पत्नी पाटला की कन्या के रूप में भारतवर्ष में जन्म धारण किया। उस समय जबकि स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के अवतरण का समय हो चला था, श्वेतवाराहकल्प की अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के द्वार का अन्त हो रहा था। पाटला ने अपनी कन्या का नाम 'यशोदा' रखा। यशोदा का विवाह ब्रजराज नन्द से हुआ। ये नन्द पूर्वजन्म में वही द्रोण नामक वसु थे, जिन्हें ब्रह्मा ने वर दिया था। भगवान की नित्यलीला में भी एक यशोदा हैं। वे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की नित्य माता हैं।

पुत्र जन्म

वात्सल्य रस की घनीभूत मूर्ति यशोदा रानी सदा भगवान को वात्सल्य रस का आस्वादन कराया करती हैं। जब भगवान के अवतरण का समय हुआ, तब इन चिदानन्दमयी, वात्सल्यरसमयी यशोदा का भी इन यशोदा[1] में ही आवेश हो गया। पाटलीपुत्री यशोदा नित्ययशोदा से मिलकर एकमेक हो गयीं तथा इन्हीं यशोदा के पुत्र में आनंदकन्द परब्रह्म पुरुषोत्तम स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र अवतीर्ण हुए। जब भगवान अवतीर्ण हुए थे, उस समय यशोदा की आयु ढल चुकी थी। इससे पूर्व अपने पति नन्द के साथ यशोदा ने न जाने कितनी चेष्टा की थी कि पुत्र हो; पर पुत्र हुआ नहीं। अतः जब पुत्र हुआ, तब फिर आनंद का कहना ही क्या है।

यशोदा जी चुपचाप शान्त होकर सोयी थीं। रोहिणी की आँखें भी बन्द थीं। अचानक सूतिका गृह अभिनव प्रकाश से भर गया। सर्वप्रथम रोहिणी माता की आँख खुली। वे जान गयीं कि यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है। विलम्ब होते देख रोहिणी जी दासियों से बोल उठीं- 'अरी! तुम सब क्या देखती ही रहोगी? कोई दौड़कर नन्द को सूचना दे दो।' फिर क्या था, दूसरे ही क्षण सूतिकागार आनन्द और कोलाहल में डूब गया। एक नन्द को सूचना देने के लिये दौड़ी। एक दाई को बुलाने के लिये गयी। एक शहनाई वाले के यहाँ गयी। चारों ओर आनन्द का साम्राज्य छा गया। यशोदा को पुत्र हुआ है, इस आनंद में सारा ब्रजपुर निमग्न हो गया।

कृष्ण तथा यशोदा

छठे दिन यशोदा ने अपने पुत्र की छठी पूजी। नन्द ने इतना दान दिया कि याचकों को और कहीं माँगने की आवश्यकता ही समाप्त हो गयी। सम्पूर्ण ब्रज ही मानो प्रेमानन्द में डूब गया। माता यशोदा बड़ी ललक से हाथ बढ़ाती हैं और अपने हृदयधन को उठा लेती हैं तथा शिशु के अधरों को खोलकर अपना स्तन उसके मुख में देती हैं। भगवान शिशुरूप में माँ के इस वात्सल्य का बड़े ही प्रेम से पान करने लगते हैं। इसके दूसरे दिन से ही मानो यशोदा-वात्सल्य-सिन्धु का मन्थन आरम्भ हो गया, मानों स्वयं जगदीश्वर अपनी जननी का हृदय मथते हुए राशि-राशि भावरत्न निकाल-निकालकर बिखेरने लगे, बतलाने लगे, घोषणा करने लगे- "जगत की देवियो! देखो, यदि तुममें से कोई मुझ परब्रह्म पुरुषोत्तम को अपना पुत्र बनाना चाहो तो मैं पुत्र भी बन सकता हूं; पर पुत्र बनाकर मुझे कैसे प्यार किया जाता है, वात्सल्यभाव से मेरा भजन कैसे होता है, इसकी तुम्हें शिक्षा लेनी पड़ेगी। इसीलिये इन सर्वथा अनमोल रत्नों को निकालकर मैं जगत में छोड़ दे रहा हूं, ये ही तुम्हारे आर्दश होंगे, इन्हें पिरोकर अपने हृदय का हार बना लेना। हृदय आलोकित हो जायगा; इस आलोक में आगे बढ़कर पुत्ररूप से मुझे पा लोगी, अनन्त काल के लिये सुखी हो जाओगी।"

वात्सल्यमयी माता

माता यशोदा का कृष्ण के प्रति बड़ा लगाव था। जब कंस के द्वारा भेजी हुई पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर गोपी वेश में यशोदा नन्दन श्रीकृष्ण को मारने के लिये आयी। उसने अपना स्तन श्रीकृष्ण के मुख में दे दिया। श्रीकृष्ण दूध के साथ उसके प्राणों को भी पी गये। शरीर छोड़ते समय श्रीकृष्ण को लेकर पूतना मथुरा की ओर दौड़ी। उस समय यशोदा के प्राण भी श्रीकृष्ण के साथ चले गये। उनके जीवन में चेतना का संचार तब हुआ, जब गोप-सुन्दरियों ने श्रीकृष्ण को लाकर उनकी गोद में डाल दिया।

बालकृष्ण को पकड़ती माता यशोदा
श्रीकृष्ण की शकटासुर वध लीला

क्रमशः यशोदानन्दन बढ़ रहे थे, एवं उसी क्रम से मैया का आनंद भी प्रतिक्षण बढ़ रहा था। यशोदा मैया पुत्र को देख-देखकर फूली नहीं समाती थीं। फिर पालने पर पुत्र को सुलाकर आनंद में निमग्न होती रहतीं। इस प्रकार जननी का प्यार पाकर श्रीकृष्णचन्द्र तो इक्यासी दिन के हो गये; पर जननी को ऐसा लगता था, मानो कुछ देर पहले मैंने अपने पुत्र का यह सलोना मुख देखा है। आज वे अपने पुत्र को एक विशाल शकट के नीचे पालने पर सुला आयीं थीं। इसी समय कंस द्वारा प्रेरित उत्कच नामक दैत्य आया और उस गाड़ी में प्रविष्ट हो गया; शकट को यशोदानन्दन पर गिराकर वह उनको पीस डालना चाहता था। पर इससे पूर्व ही यशोदानन्दन ने अपने पैर से शकट को उलट दिया और शकटासुर के संसरण का अन्त कर दिया। इधर जब जननी ने शकट-पतन का भयंकर शब्द सुना, तब ये सोच बैठीं कि मेरा लाल तो अब जीवित रहा नहीं। बस, ढाढ़ मारकर एक बार चीत्कार कर उठीं और फिर सर्वथा प्राणशून्य-सी होकर गिर पड़ीं। बड़ी कठिनता से गोपसुन्दरियां उनकी मूर्छा तोड़ने में सफल हुई। उन्होंने आंखें खोलकर अपने पुत्र को देखा, देखकर रोती हुई ही अपने को धिक्कार देने लगीं- "हाय रे हाय! मेरा यह नीलमणि नवनीत से भी अधिक सुकोमल है, केवल तीन महीने का है और इसके निकट शकट हठात भूमि पर गिरकर टूट गया। यह बात सुनकर भी मेरे प्राण न निकले, मैं उन्हीं प्राणों को लेकर अभी तक जीवित हूं, तो यही सत्य है कि मैं वज्र से भी अधिक कठोर हूँ। मैं कहलाने मात्र को माता हूं, मेरे ऐसे मातृत्व को, मातृवत्सलता को धिक्कार है।" यशोदारानी कभी तो प्रार्थना करतीं- "हे विधाता! मेरा यह दिन कब आयेगा, जब मैं अपने लाल को बकैयां चलते देखूंगी, दूध की दंतुलियां देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे, इसकी तोतली बोली सुनकर कानों में अमृत बहेगा।

तृणावर्त उद्धार

जननी का मनोरथ पूर्ण करते हुए क्रमशः श्रीकृष्णचन्द्र बोलने भी लगे; बकैयां भी चलने लगे और फिर खड़े होकर भी चलने लगे। इतने में वर्ष पूरा हो गया, यशोदा ने अपने पुत्र की प्रथम वर्षगांठ मनायी। इसी समय कंस ने तृणावर्त दैत्य को भेजा। वह आया और यशोदा के नीलमणि को उड़ाकर आकाश में चला गया। यशोदा मृतवस्था गौ की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ीं। इस बार जननी के जीवन की आशा किसी को न थी। पर जब श्रीकृष्णचन्द्र तृणावर्त को चूर्ण-विचूर्ण कर लौटे, गोपियां उन्हें दैत्य के छिन्न-छिन्न शरीर पर से उठा लायीं, तब तत्क्षण यशोदा के प्राण भी लौट आये- "दैत्य के द्वारा अपहृत शिशु को पाकर महाप्रयाण (मृत्यु) में लीन होने पर भी यशोदा उसी क्षण वैसे ही चैतन्य हो गयीं, जैसे वर्षा का जल पाकर इन्द्रगोप[2] कीट की जाति जीवित हो जाती है।"

मृतिका भक्षण लीला
बालकृष्ण के मुख में देखतीं माता यशोदा

यशोदा एवं श्रीकृष्णचन्द्र में होड़ लगी रहती थी। यशोदा का वात्सल्य उमड़ता, उसे देखकर उससे सौगुने परिणाम में श्रीकृष्णचन्द्र का लीलामाधुर्य प्रकाशित होता; फिर इस लीलामाधुरी को देखकर सहस्रगुनी मात्रा में यशोदा का भावसिन्धु तरंगित हो उठता। इन भावलहरियों से धुलकर पुनः श्रीकृष्णचन्द्र की लीलाकिरणें निखर उठीं, क्षणभर पूर्व जो थीं, उससे लक्षगुणित परिणाम में चमक उठतीं। इस क्रम से बढ़कर यशोदा का वात्सल्य अनन्त, असीम, अपार बन गया था। उसमें डूबी हुई यशोदा और सब कुछ भूल गयी थीं, केवल नीलमणि ही उनके नेत्रों में नाचते रहते थे। कब दिन हुआ, कब रात्रि आयी, यशोदा को यह भी किसी के बताने पर ही भान होता था। उनको क्षणभर के लिये भावसमाधि से जगाने के लिये ही मानो यशोदानन्दन ने मृतिका भक्षण लीला की। श्रीकृष्ण ने मिट्टी खायी है, यह सुनकर यशोदा उनका मुख खुलाकर मिट्टी ढूंढ़ने गयीं, और उनके मुख में सारा विश्व अवस्थित देखा। यह देखकर एक बार तो वे कांप उठीं, किंतु इतने में ही श्रीकृष्णचन्द्र की वैष्णवी माया का विस्तार हुआ। यशोदा वात्सल्य सागर में एक लहर उठी। वह यशोदा के इस विश्वदर्शन की स्मृति तक को बहा ले गयी। नीलमणि को गोद में लेकर यशोदा अपने प्यार से उन्हें स्तनपान कराने लगीं। यशोदा भूली रहती थीं, पर दिन तो पूरे होते ही थे।

वृन्दावन आगमन

यशोदा के अनजान में ही उसके पुत्र की दूसरी वर्षगांठ भी आ पहुँची। फिर देखते-देखते ही उनके नीलमणि दो वर्ष दो महीने के हो गये। पर अब नीलमणि ऐसे, इतने चंचल हो गये थे कि यशोदा को एक क्षण भी चैन नहीं। गोपियों के घर जाकर तो न जाने कितनों के दहीभांड फोड़ आया करते थे। एक दिन मैया का वह दहीभांड भी फोड़ दिया, जो उनके कुल में वर्षों से सुरक्षित चला आ रहा था। जननी ने डराने के उद्देश्य से श्रीकृष्णचन्द्र को ऊखल में बांधा। सारा विश्व अनन्त काल तक यशोदा की इस चेष्टा पर बलिहार जायगा। इस बन्धन को निमित्त बनाकर यशोदा के नीलमणि ने दो अर्जुन वृक्षों को जड़ से उखाड़ दिया और यमलार्जुन का उद्धार किया। फिर तो ब्रजवासी यशोदानन्दन की रक्षा के लिये अतिशय व्याकुल हो गये। पूतना से, शकटासुर से, तृणावर्त से, वृक्ष से, इतनी बार तो नारायण ने नीलमणि को बचा लिया, अब आगे यहाँ इस गोकुल में तो एक क्षण भी नहीं रहना चाहिये। गोपों ने परामर्श करके निश्चय कर लिया- "बस, इसी क्षण वृन्दावन चले जाना है।" यही हुआ, यशोदा अपने नीलमणि को लेकर वृन्दावन चली आयीं।

वृन्दावन आने के पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र की अनेकों भुवनमोहिनी लीलाओं का प्रकाश हुआ। उन्हें गोपबालकों के मुख से सुन-सुनकर तथा कुछ को अपनी आंखों देखकर यशोदा कभी तो आनंद में निमग्न हो जातीं, कभी पुत्र की रक्षा के लिये उनके प्राण व्याकुल हो उठते। श्रीकृष्णचन्द्र का तीसरा वर्ष अभी पूरा नहीं हुआ था, फिर भी वे बछड़ा चराने वन में जाने लगे। वन में वत्सासुर-बकासुर आदि को मारा। जब इन घटनाओं का विवरण जननी सुनती थीं, तब पुत्र के अनिष्ट की आशंका से उनके प्राण छटपटाने लगते। पांचवें वर्ष की शुक्लाष्टमी में श्रीकृष्णचन्द्र का गोचारण आरम्भ हुआ तथा इसी वर्ष ग्रीष्म के समय उनकी कालियदमन लीला हुई। कालिय के बन्धन में पुत्र को बंधा देखकर यशोदा की जो दशा हुई थी, उसे चित्रित करने की क्षमता किसी में नहीं। छठे वर्ष में जैसी-जैसी विविध मनोहारिणी गोष्ठक्रीड़ा श्रीकृष्णचन्द्र ने की, उसे सुन-सुनकर यशोदा को कितना सुख हुआ था, इसे भी वर्णन करने की शक्ति किसी में नहीं। सातवें वर्ष धेनुक उद्धार की लीला हुई, आठवें वर्ष गोवर्धन धारण लीला हुई, नवें वर्ष में सुदर्शन का उद्धार हुआ। दसवें वर्ष में अनेकों आनंदमय बालक्रिड़ाएं हुई, ग्यारहवें वर्ष में अरिष्ट उद्धार हुआ, बारहवें वर्ष में गौण फाल्गुनी मास की द्वादशी को केशी दैत्य का उद्धार हुआ। इन सभी अवसरों पर यशोदा के हृदय में हर्ष अथवा दुःख की जो धाराएं फूट निकलती थीं, उनमें यशोदा स्वयं तो डूब ही जातीं, सारे ब्रज को भी निमग्न कर देती थीं।

अक्रूर का कृष्ण को ले जाना

इस प्रकार ग्यारह वर्ष, छः महीने तक यशोदा रानी के भवन को श्रीकृष्णचन्द्र आलोकित करते रहे; किंतु अब वह आलोक मधुपुरी जाने वाला था।
यशोदा श्रीकृष्ण के कान पकड़ते हुए।
श्रीकष्णचन्द्र को मधुपुरी (मथुरा) ले जाने के लिये अक्रूर आ ही गये। वही फाल्गुन द्वादशी की सन्ध्या थी, अक्रूर ने आकर यशोदा के हृदय पर मानों अतिक्रूर वज्र गिरा दिया। सारी रात ब्रजेश्वर ब्रजरानी यशोदा को समझाते रहे; पर यशोदा किसी प्रकार भी सहमत नहीं हो रहीं थीं, किसी हालत में पुत्र को कंस की रंगशाला देख आने की अनुमति नहीं देती थीं। अंतत: योगमाया ने माया का विस्तार किया। यशोदा भ्रान्त हो गयीं। अनुमति तो उन्होंने फिर भी नहीं दी; पर अब तक जो विरोध कर रही थीं, वह न करके आंसू ढालने लगीं। विदा होते समय यशोदा रानी की जो करुण दशा थी, उसे देखकर कौन नहीं रो पड़ा। आह! व्यग्र हुई यशोदा यात्रा के समय करने योग्य मंगल कार्य भी नहीं कर रही हैं। इतनी भ्रान्तचित्त हो गयी हैं कि अपने वात्सल्य के उपयुक्त पुत्र को कोई पाथेय[3] तक नहीं दे रही हैं, देना भूल गयी हैं। श्रीकृष्णचन्द्र को हृदय से लगाकर निरन्तर रो रही हैं, उनके अजस्त्र अश्रुप्रवाह से भूमि पंकिल हो रही है। रथ श्रीकृष्णचन्द्र को लेकर चल पड़ा। रथचक्रों के चिह्न भूमि पर अंकित होने लगे, मानों धरारूपिणी यशोदा के छिदे हुए हृदय को पृथ्वीदेवी व्यक्त कर रही थीं।

विरह व्यथा

श्रीकृष्णचन्द्र के विरह में जननी यशोदा की क्या दशा हुई, इसे यथार्थ वर्णन करने की सामर्थ्य सरस्वती में भी नहीं। यशोदा मैया वास्तव में विक्षिप्त हो गयीं। जहाँ श्रीकृष्णचन्द्र रथ पर बैठे थे, वहाँ प्रतिदिन चली आतीं। उन्हें दीखता अभी-अभी मेरे नीलमणि को अक्रूर लिये जा रहे हैं। वे चीत्कार कर उठतीं- "अरे! क्या ब्रज में कोई नहीं, जो मेरे जाते हुए नीलमणि को रोक ले, पकड़ ले। यह देखो, रथ बढ़ा जा रहा है, मेरे प्राण लिये जा रहा है, मैं दौड़ नहीं पा रहीं हूं; कोई दौड़कर मेरे नीलमणि को पकड़ लो, भैया।" कभी जड़-चेतन, पशु-पक्षी, मनुष्य-जो कोई भी दृष्टि के सामने आ जाता, उसी से वसुदेव पत्नी देवकी को अनेक संदेश भेजतीं। किसी पथिक ने यशोदा का यह संदेश श्रीकृष्णचन्द्र से जाकर कह भी दिया। सान्त्वना देने के लिये श्रीकृष्णचन्द्र ने उद्धव को भेजा। उद्धव आये, पर जननी के आसूं पोंछ नहीं सके।

गोलोकयात्रा

यशोदा रानी का हृदय तो तब शीतल हुआ, जब वे कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्णचन्द्र से मिलीं। बलराम-श्याम को हृदय से लगाकर, गोद में बैठाकर उन्होंने नवजीवन पाया। कुरुक्षेत्र से जब यशोदा रानी लौटीं, तब उनकी जान में उनके नीलमणि उनके साथ ही वृन्दावन लौट आये। यशोदा का उजड़ा हुआ संसार फिर से बस गया। श्रीकृष्णचन्द्र अपनी लीला समेटने वाले थे। इसीलिये अपनी जननी यशोदा को पहले से भेज दिया। जब भागुनन्दिनी गोलाकविहारिणी श्रीराधाकिशोरी को वे विदा करने लगे, तब गोलोक के उसी दिव्यातिदिव्य विमान पर जननी को भी बिठाया तथा राधाकिशोरी के साथ ही यशोदा अन्तर्धान हो गयीं, गोलोक में पधार गयीं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पूर्वजन्म की धरा
  2. बीरबहूटी
  3. राहखर्च

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