वसुदेव

संक्षिप्त परिचय
वसुदेव
कृष्ण-बलराम से मिलते वसुदेव, द्वारा- राजा रवि वर्मा
वंश-गोत्र यदुवंशी
पिता शूर
माता मारिषा
धर्म-संप्रदाय हिन्दू
परिजन देवकी, रोहिणी, कृष्ण, बलराम
विवाह उग्रसेन के भाई देवक की सात कन्याओं से वसुदेव का विवाह हुआ था, जिनमें देवकी और रोहिणी प्रमुख थीं। कहीं पर इनकी पत्नियों की संख्या 12 भी बताई गई है।
संतान बलराम, कृष्ण
संबंधित लेख कृष्ण, बलराम, देवकी, रोहिणी
अन्य जानकारी 'भागवत' तथा अन्य पुराणों के अनुसार वसुदेव कृष्ण के वास्तविक पिता, देवकी के पति और कंस के बहनोई थे। जिस प्रकार यशोदा की तुलना में देवकी का चरित्र भक्त कवियों को आकर्षित नहीं कर सका, उसी प्रकार नन्द की तुलना में वसुदेव का चरित्र भी गौण ही रहा।

वसुदेव मथुरा के राजा उग्रसेन के मंत्री, यदुवंशी शूरसेन तथा मारिषा के पुत्र और श्रीकृष्ण के पिता थे। पाण्डवों की माता कुन्ती इनकी बहन थीं। इनका विवाह देवक अथवा आहुक की सात कन्याओं से हुआ था, जिनमें देवकी सर्वप्रमुख थीं। वसुदेव के नाम पर ही श्रीकृष्ण को 'वासुदेव'[1] कहते हैं।

जन्म कथा

पूर्वकल्प में प्रजापति सुतपा तथा उनकी पत्नी पृश्नि ने बहुत दिनों तक तपस्या करके भगवान को संतुष्ट किया। जब भगवान ने उन्हें दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा, तब उन लोगों ने भगवान को ही अपने पुत्ररूप में पाने की इच्छा प्रकट की। प्रभु ने तीन बार उनसे ‘दिया, दिया, दिया’ कहा। उस कल्प में भगवान का अवतार माता पृश्नि से हुआ और वे ‘पृश्निगर्भ’ कहलाये। दूसरे कल्प में प्रजापति सुतपा हुए कश्यप जी और पृश्नि हुई देवमाता अदिति। भगवान ने ‘वामन’ रूप से उनके यहाँ अवतार लिया। क्योंकि तीन बार भगवान ने ‘दिया, दिया, दिया’ कहा था, अतः तीसरी बार प्रजापति सुतपा यदुवंश में शूरसेन के पुत्र वसुदेव हुए। इनके जन्म के समय देवताओं की दुन्दुभियां स्वयं बज उठी थीं, इसलिये इनको लोग 'आनकदुन्दुभि' कहते थे। माता पृश्नि मथुरा नरेश उग्रसेन के भाई देवक की सबसे छोटी कन्या देवकी हुईं।

विवाह

वसुदेव जी के कुल अट्ठारह विवाह हुए, जबकि कहीं-कहीं इनकी 12 पत्नियाँ कही जाती हैं। वसुदेव की पत्नियों के ज्ञात नाम इस प्रकार हैं- देवकी, रोहिणी, पौरवी, मदिरा, कौशल्या, रोचा, इला, धृतदेवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता और सहदेवा। वसुदेव ने अपनी इन सभी पत्नियों से संतानें प्राप्त की थीं। सभी संतानों का जन्म मथुरा में ही हुआ था। इनमें से अनेकों की आयु में कुछ दिनों का ही अंतर था। वसुदेव का भवन उनकी पत्नियों की संतानों से भर गया। उनके भाइयों की पत्नियों के भी कई पुत्र हुए। दीर्घ काल तक पौत्रों का मुख देखने को तरसती रही थीं देवी मारिषा और फिर उनको पितामही का गौरव देने वाले बहुत अधिक एक साथ आ गए उनके पुत्रों के गृहों में। उनकी अभिलाषा भली प्रकार पूर्ण हो गई। देवक की छः कन्याएं तो वसुदेव जी को ब्याही जा रही थीं; जब देवकी का भी विवाह उनसे हो गया, तब उग्रसेन का ज्येष्ठ पुत्र कंस अपनी छोटी चचेरी बहिन के स्‍नेहवश स्वयं वसुदेव-देवकी के रथ का सारथि बनकर उन्हें घर पहुँचाने लगा। मार्ग में आकाशवाणी ने उससे कहा- "मूर्ख ! तू जिसे पहुँचाने जा रहा है, उसकी आठवीं सन्तान के हाथ से तेरी मृत्यु होगी।" इतना सुनते ही कंस ने तलवार खींच ली और वह देवकी को मारने के लिये उद्यत हो गया। वसुदेव जी ने उसे बहुत समझाया। "शरीर तो नश्वर है। मृत्यु एक-न-एक दिन होगी ही। मनुष्य को कोई ऐसा काम इस दो क्षण के जीवन के लिये नहीं करना चाहिये कि मरने पर लोग उसकी निंदा करें। जो प्राणियों को मोहवश कष्ट देता है, मरने पर यम के दूत घोर नरक में डालकर युगों तक उसे भयंकर पीड़ा देते हैं।"

कारावास

कंस के ऊपर ऐसी बातों का कोई प्रभाव पड़ता न देखकर अन्त में वसुदेव जी ने कहा- "तुम्हें इस देवकी से तो कोई भय है नहीं। तुमको मात्र इसकी संतानों से भय है। मैं वचन देता हूँ कि इसकी सन्तानों को जन्म लेते ही मैं तुम्हारे पास पहुँचा दिया करूंगा।" कंस जानता था कि वसुदेव इतने धर्मात्मा हैं, इतने सत्यनिष्ठ हैं कि वे अपनी बात टाल नहीं सकते। उसने देवकी को मारने का प्रयत्न छोड़ दिया और देवकी तथा वसुदेव को आजीवन कारावास में डाल दिया।

वसुदेव बाल कृष्ण को गोकुल ले जाते हुए

कृष्ण जन्म

समय आने पर देवकी के पुत्र हुआ। वसुदेव जैसे संत, सत्पुरुष के लिये कोई भी त्याग दुष्कर नहीं। अपने प्राणप्रिय पुत्र को वे जन्मते ही कंस के पास उठा ले गये। पहले तो कंस ने उनकी सत्यनिष्ठा देखकर बालक को लौटा दिया; पर पीछे से नारद ने जब उसे उल्टा-सीधा समझा दिया, तब उस बालक को उसने मार डाला। देवकी के पुत्र उत्पन्न होते ही कंस उसे मार डालता था। छः पुत्र उसने इसी प्रकार मार दिये। सातवें गर्भ में बलराम थे। योगमाया ने उन्हें देवकी के गर्भ से संकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया। इसी से बलराम का एक नाम संकर्षण भी हुआ। भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आधी रात में स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र ही प्रकट हुए। भगवान के आदेश से वसुदेव रात्रि में ही उन्हें गोकुल नन्द के यहाँ पहुँचा आये और वहाँ से यशोदा की नवजात बालिका ले आये। कंस जब उस बालिका को मारने चला तो वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी। अष्टभुजा देवी के रूप में प्रकट होकर उसने कंस से कहा- "तेरा वध करने वाला शत्रु कहीं प्रकट हो गया है।" कंस ने यह सुनकर वसुदेव-देवकी को कारागार से छोड़ दिया।

बंदीगृह से मुक्ति

दुरात्मा कंस जान गया कि उसे मारने वाला नन्दगृह में ही आया है। उसके जो असुर ब्रज में गये, वे सभी श्रीकृष्ण के हाथों सद्गति पा गये। जब नारद से पता लगा की कृष्ण-बलराम तो वसुदेव जी के ही पुत्र हैं, तब तो कंस बहुत रुष्ट हुआ। उसने हथकड़ी-बेड़ी से वसुदेव-देवकी को जकड़कर पुनः बंदीगृह में डाल दिया। अन्ततः श्रीकृष्णचन्द्र मथुरा आये। कंस को उन्होंने मारकर मुक्त कर दिया। पिता-माता की बेडि़यां काटकर जब राम-श्याम उनके पदों में प्रमाण करने लगे, वसुदेव जी आश्चर्य से खडे़ रह गये। वे जानते थे कि श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात परमात्मा हैं। परन्तु लीलामय श्यामसुन्दर ने माता-पिता से क्षमा मांगी, मीठी बातें कीं और उनमें वात्सल्य-भाव जाग्रत कर दिया। वासुदेव की महिमा, उनके सौभाग्य का कोई अनुमान भी कैसे कर सकता है। जगन्नाथ बलराम-श्याम उन्हें पिता कहकर सदा आदर देते थे। नित्य प्रातःकाल उनके पास जाकर उनको प्रमाण करते थे। उनकी सब प्रकार की सेवा करते थे।

श्रीकृष्ण का अनुगमन

कुरुक्षेत्र में सूर्य-ग्रहण के समय वसुदेव ने ऋषियों से कर्म के द्वारा संसार से मुक्त होने का मार्ग पूछा। ऋषियों ने उनसे यज्ञानुष्ठान कराया। वहाँ ऋषियों ने उनसे कहा था- "श्रीकृष्ण ही साक्षात् ब्रह्म हैं।" द्वारका में वसुदेव जी ने उस श्यामसुन्दर से यही बात कही, तब उन मयूर मुकुटधारी ने पिता को तत्त्वज्ञान का उपेदश किया। इसके पश्चात देवर्षि नारद ने वसुदेव को अध्यात्मज्ञान तथा भक्ति का तत्त्व बताया। तब प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्णचन्द्र ने लीला संवरण कर ली और दारुक से यह संवाद प्राप्त हुआ, तब वसुदेव भी शंखोद्धार-तीर्थ से प्रभास गये और वहाँ उन्होंने भी श्रीकृष्ण का अनुगमन किया।

'भागवत' तथा अन्य पुराणों के अनुसार वसुदेव कृष्ण के वास्तविक पिता, देवकी के पति और कंस के बहनोई थे। जिस प्रकार यशोदा की तुलना में देवकी का चरित्र भक्त कवियों को आकर्षित नहीं कर सका, उसी प्रकार नन्द की तुलना में वसुदेव का चरित्र भी गौण ही रहा। कृष्ण जन्म पर कंस के वध के भय से आक्रान्त वसुदेव की चिन्ता, सोच और कार्यशीलता से उनके पुत्र-स्नेह की सूचना मिलती है। यद्यपि उन्हें कृष्ण अलौकिक व्यक्तित्व का ज्ञान है फिर भी उनकी पितृसुलभ व्याकुलता स्वाभाविक ही है।[2] मथुरा में पुनर्मिलन के पूर्व ही वसुदेव को स्वप्न में उसका आभास मिल जाता है। वे अपनी दुखी पत्नी देवकी से इस शुभ अवसर की आशा में प्रसन्न रहने के लिए कहते हैं।[3] वसुदेव का चरित्र भागवत-भाषाकारों के अतिरिक्त सूरदास के समसामायिक एवं परवर्ती प्राय: सभी कवियों की दृष्टि में उपेक्षित ही रहा। आधुनिक युग में केवल 'कृष्णायन'[4] के अन्तर्गत उसे परम्परागत रूप में ही स्थान मिल सका है।[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात् 'वसुदेव के पुत्र'
  2. सूर सागर प0 620-630
  3. सूर सागर प0 307-309
  4. कृष्णायन 1/2
  5. रा. कु.

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