हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इन्द्र-महोत्सव को स्वीकार करने के सम्बन्ध में उस बड़े-बूढ़े गोप का वचन सुनकर इन्द्र के प्रभाव को जानते हुए भी श्रीकृष्ण ने यह बात कही- 'आर्य! हम लोग वन में रहने वाले गोप हैं और सदा गोधन से अपनी जीविका चलाते हैं; अत: आपको मालूम होना चाहिये कि गौएं, पर्वत और वन- ये ही हमारे देवता हैं। किसानों की जीविका-वृत्ति है खरीद-विक्री और हम लोगों की सर्वोत्तम वृत्ति है गौओं का पालन। ये वार्ता रूप विद्या के तीन भेद कहलाते हैं। जो जिस विद्या से युक्त है, उसके लिये वही सर्वोत्तम देवता है, वही पूजा-अर्चा के योग्य है और वही उसके लिये उपकारिणी है। जो मनुष्य एक व्यक्ति से फल पाकर उसे भोगता है और दूसरे की पूजा (आदर-सत्कार) करता है, वह इस लोक और परलोक में दो अनर्थों का भागी होता है। जहां-तक खेती होती है, वहाँ तक व्रज की सीमा विख्यात है। सीमा के अन्त में वन सुना जाता है और वन के अन्त में समस्त पर्वत हैं। वे पर्वत ही हमारे अविचल आश्रय हैं। सुना जाता है कि इस वन में रहने वाले पर्वत भी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले हैं। वे भिन्न-भिन्न शरीरों में प्रवेश करके अपने शिखरों पर मौज से घूमते-फिरते हैं। वे ही अयालों से विभूषित सिंह और नखधारी जन्तुओं में श्रेष्ठ व्याघ्र बनकर वन को काटने या हानि पहुँचाने वाले लोगों को त्रास देते हुए अपने-अपने वनों की रक्षा करते हैं। जब वन के आश्रय में रहकर जीवन निर्वाह करने वाले लोग इन वनों या वन देवताओं को हानि पहुँचाते हैं, तब वे कामरूपी देवता राक्षसोचित हिंसा-कर्म के द्वारा उन दुराचारी मनुष्यों को निश्चय ही मार डालते हैं। ब्राह्मण लोग मन्त्र यज्ञ में तत्पर रहते हैं, किसान सीतायज्ञ करते हैं अर्थात खेतों को अच्छी तरह जोतते और हल जोतने से जो रेखा बन जाती है, उसकी तथा हल की पूजा करते हैं तथा गोपगण गिरियज्ञ करते हैं; अत: हम लोगों को इस वन में गिरियज्ञ करना चाहिये। गोपगण! मुझे तो यही अच्छा लगता है कि गिरियज्ञ का आरम्भ हो। स्वस्तिवाचन आदि कर्म करके वृक्षों के नीचे अथवा पर्वत के समीप किसी सुखद स्थान पर पवित्र पशुओं को एकत्र करके उनके पास जाकर उनका विस्तारपूर्वक पूजन किया जाय और एक शुभ मन्दिर में सारे व्रज के दूध का संग्रह कर लिया जाय। इस विषय में आप लोग क्या विचार कर रहे हैं। फिर शरद्-ऋतु के फूलों से जिनके मस्तक का श्रृंगार किया गया हो ऐसी समस्त गौएं गिरिवर गोवर्धन की दक्षिणावर्त परिक्रमा करके पुन: व्रज में जायँ। इस समय प्रमोद पूर्ण रमणीय शरद्-ऋतु आ गयी है, जबकि जल और घास गौओं के लिये स्वादुता के गुणों से सम्पन्न जाते हैं। अब जलाशयों में पानी बरसाने वाले बादल छँट गये। खिले हुए कदम्ब-पुष्पों के कारण वन गौरवर्ण का प्रतीत होता है। कहीं-कहीं बाणासनों-झाड़-झंखाड़ों के कारण वह श्याम रंग का दिखायी देता है। अब घासें कोमल नहीं रहीं- कुछ कठोर हो गयी हैं। वन में मोरों की मधुर वाणी नहीं सुनायी देती है। आकाश में जल, मल, बलाका और विद्युत से रहित बादल दन्तहीन हाथियों के समान बढ़ रहे हैं। (वर्षा-ऋतु में) नूतन जल को खींच लाने वाले शक्तिशाली मेघयुक्त वायु से अभिषिक्त होने के कारण जो पत्तों के बाहुल्य से घने दिखायी देते थे, वे सभी वृक्ष अब पत्तों के बिरल हो जाने से प्रसाद को प्राप्त हो रहे हैं (पहले वहाँ अन्धकार छाया रहता था अब प्रकाश हो गया है)।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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