हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-16

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्‍टाविंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भोज वंश की वृद्धि करने वाला राजा कंस धनुष के टूटने की घटना पर विचार करके मन-ही-मन खिन्‍न हो उठा। वह ज्‍यों-ही-ज्‍यों उसका चिन्‍तन करता, त्यों-ही-त्‍यों अत्‍यन्‍त दु:ख में निमग्न होता जाता था। वह सोचने लगा ‘अहो! वह बालक कैसे निर्भय हो महाबली रक्षक की अवहेलना करके दूसरे लोगों के देखते-देखते धनुष तोड़कर निकल गया। यह वही बालक है, जिसे मारने के लिये मैंने लोकनिन्‍दित क्रूरतापूर्ण कर्म किया। अपनी चचेरी बहिन के छ: वीर पुत्रों को शिला पर दे मारा। सचमुच ही पुरुषार्थ से दैव के विधान का उल्‍लंघन नहीं किया जा सकता। नारद जी ने मेरे लिये जो बात कही थी, वह अवश्‍य आकर उपस्‍थित हो गयी।' इस प्रकार चिन्‍ता करके राजा कंस अपने उत्‍तम भवन से निकला और शीघ्र ही प्रेक्षागृह[1] (रंगशाला) में वहाँ लगे हुए मंचों का निरीक्षण करने के लिये गया। उस श्रेष्‍ठ नरेश ने प्रेक्षागृह को सब प्रकार से सम्पन्‍न हुआ देखा। वहाँ एक मात्र शिल्‍प से जीवन-निर्वाह करने वाले शिल्‍पियों ने लगातार बहुत-से मंचों के बाड़ बना रखे थे। वे सब-के-सब दृढतापूर्वक बाँधे गये थे। उन छज्‍जों में कहीं तो छ:-छ: खम्भे एक साथ लगे थे, जिनसे उनकी विशालता बढ़ गयी थी और कहीं-कहीं एक-एक संख्‍या वाले ही खम्भे लगाये गये थे। इन खम्भों, छज्‍जों और मंचवाटों ने उस प्रेक्षागृह को विभूषित कर रखा था। वहाँ सब ओर दीवारों में मजबूत खूंटियाँ लगी थीं। वह भवन बहुत विशाल बना था। उसकी अच्‍छी प्रकार प्रतिष्‍ठा की गयी थी। उसके भीतर मंचों पर चढ़ने के लिये ऊँची असंकीर्ण (चौड़ी) तथा परस्‍पर सटी हुई सीढ़ियाँ बनी थीं। इससे वह रंग भवन बहुत ही उत्‍तम दिखायी देता था।

वहाँ राजाओं के बैठने के लिये चारों ओर सिंहासन रखे गये थे। उस रंगशाला में सब ओर आने-जाने के लिये बहुत-से मार्ग थे। सारा भवन बहुत संख्‍यक वेदियों से व्याप्त था। उसमें मनुष्‍यों की बहुत बड़ी भीड़ को अपने भीतर सुगमतापूर्वक भर लेने की क्षमता थी। बुद्धिमान कंस ने उस रंग भवन को सब प्रकार से सजा हुआ देख कार्यकर्ताओं को इस प्रकार आज्ञा दी- 'कल सबेरे यहाँ के मंचवाटों, छज्‍जों तथा गलियों को चित्रों, मालाओं और पताकाओं से सजा दिया जाये, सुगन्‍धित जल छिड़का जाय, मंचों पर सुन्‍दर चाँदनी बिछा दी जाय। अखाड़े में गोमयचुर्ण के अधिक-से-अधिक ढेर बिछा दिये जायँ। जिससे उनकी कमी न पड़े। जगह-जगह शोभा के लिये सुन्‍दर परदे लगा दिये जाये। उनके अनुरुप खम्भे खड़े किये जायँ, जो भूमि में खूब गहराई तक गड़े हों। क्रमश: पानकुम्भ[2] स्‍थापित किये जाये, वे सब-के-सब जल का भार सह लेने में समर्थ हों। उन पर जलपूर्ण सोने के उत्‍तम घड़े रख दिये जायँ। उपहार की वस्‍तुएँ भी एकत्र की जायँ, घड़ों में रस भरकर रखे जायें, मल्‍ल युद्ध के नियमों को जानने वाले लोग निमन्‍त्रित किये जाये, व्‍यवसायियों तथा कारीगरों को उनके अगुओं सहित बुलाया जाये। मल्‍लों तथा प्रेक्षकों (युद्ध में हार-जीत के निर्णायकों) को ठीक समय से आने की आज्ञा दे दी जाय। रंगशाला में स्‍थापित किये गये मंचों की शोभा बढ़ाने के लिये उन्‍हें अच्‍छी तरह सजाया जाये।' इस प्रकार रंगशाला को अच्‍छी तरह से सजाने की उत्‍तम व्‍यवस्‍था के लिये आज्ञा देकर राजा कंस वहाँ से निकला और अपने महल में चला गया।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धनुर्यज्ञ का उत्सव देखने के लिये बना हुआ विशाल स्‍थान।
  2. पानी से भरे घड़ों या माँटों को रखने के लिये काठ की बनी हुई चार या छ: पाये की टेबल- जैसी एक चीज, जिसे कुछ स्‍थानों पर पल्‍हैंडी कहते हैं। इसी का नाम पानकुम्भ है। नीलकण्‍ठ ने इसका पर्यायवाची शब्‍द घटोच्‍छ्रायिका बताया है।

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