हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 109 श्लोक 1-24

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: नवाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद

बलदेव जी के द्वारा प्रद्युम्न को आह्निकस्तोत्र का उपदेश

वैशम्पायन जी कहते हैं- विजयी वीरों में श्रेष्ठ जनमेजय! जब प्रद्युम्न कालशम्बर का वध करके द्वारकापुरी में आये, उस समय बलदेव जी ने उनकी रक्षा के लिये उन्हें एक स्तोत्र का उपदेश दिया, जिसे आह्निक कहते हैं। नृपश्रेष्ठ! उसी आश्चर्यमय आह्निक स्तोत्र का यहाँ वर्णन किया जाता है, जिसका सायंकाल में जप करने से मनुष्य पूतात्मा (पवित्र अन्त:करण वाला) हो जाता है। इस स्तोत्र का बलदेव जी ने, भगवान विष्णु ने तथा धर्माभिलाषी ऋषि-मुनियों ने भी कीर्तन किया है। एक समय की बात है, रुक्मिणीपुत्र प्रद्युम्न घर में बलराम जी के साथ बैठे हुए थे। उन्होंने हाथ जोड़कर बलराम जी को प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- प्रद्युम्‍न बोले- 'भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई महाभाग रोहिणीनन्दन! प्रभो! मुझे किसी ऐसे स्तोत्र का उपदेश दीजिये, जिसका जप करके मैं निर्भय हो जाऊँ।'

श्रीबलदेव जी ने कहा- 'देवताओं और असुरों के गुरु जगत्पति ब्रह्मा जी मेरी रक्षा करें। ओंकार, वषट्कार, सावित्री, तीन प्रकार की[1] विधियाँ, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, रहस्य और विस्तार सहित सम्पूर्ण रूप से चारों वेद, इतिहास, पुराण, खिल, उपखिल, अंग, उपांग, तथा व्याख्याग्रन्थ, इन सबके अभिमानी देवता मेरी रक्षा करें। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, पाँचवां तेज, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सत्त्वगुण, राजोगुण, तमोगुण, व्यान, उदान, समान, प्राण और पाँचवां अपान, जिनके अधीन यह सारा जगत है, वे प्रवह आदि अन्य सात वायु, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु और भगवान वसिष्ठ- ये महर्षि तथा पूर्वोंक्त पृथ्वी आदि के कश्यप आदि चौदह मुनि, दस दिशाएँ तथा अपने गणों सहित देव नर और नारायण- ये सदा मेरा संरक्षण करें। ग्यारह रुद्र कहे गये हैं और बारह आदित्य, आठ वसुदेवता बताये गये हैं और दो अश्विनीकुमार- ये सब मेरी रखा करें। ह्नी, श्री, लक्ष्मी, स्वधा, पुष्ठि, मेधा, तुष्टि, स्मृति, धृति, देवमाता अदिति तथा दैत्यों की माताएँ दिति, दनु और सिंहि का आदि मेरी रक्षा करें।

हिमवान, हेमकूट, निषध, श्वेतपर्वत, ऋषभ, पारियात्र, विन्ध्य, वैदूर्य पर्वत, सह्म, उदयगिरि, मलय, मेरु, मन्दर, दर्दुर, क्रोन्च, कैलास और मैनाक आदि पर्वत मेरी रक्षा करें। शेष, वासुकि, शिलाक्ष और तक्षक, एलापत्र, शुक्लवर्ण, कम्बल, अश्वतर, हस्तभद्र, पिटरक, ककोंटक, धनंजय, पूरणक, करवीरक नाग, सुमनास्य, दधिमुख, श्रृंगार पिण्डक, तीनों लोकों में विख्यात भगवान मणिनाग, नागराज अधिकर्ण तथा हारिद्रक- ये तथा दूसरे भी बहुत से नाग, जिनके नाम यहाँ नहीं लिये गये हैं, वे भी सत्यधर्मा एवं पृथ्वी का भार धारण करने वाले नागराज मेरी रखा करें। चारों समुद्र मेरी रक्षा करें। सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा, सरस्वती, चन्द्रभागा, शतद्र, देविका, शिवा, द्वारावती, विपाशा, सरयू, यमुना, कल्माषी, रथोष्मा, बाहुदा, हिरण्यदा, प्लक्षा, इक्षुमती, स्त्रवन्ती, बृहद्रथा, सुविख्यात चर्मण्वती तथा पुण्यसलिला वधूसरा - ये और दूसरी बहुत-सी नदियाँ जिनके नाम यहाँ नहीं लिये गये है तथा जो उत्तर भारत में बहने वाली हैं, वे सब-की-सब अपने जल से मुझे नहलायें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अपूर्व विधि, नियमविधि और परिसंख्या विधि।

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