हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
भगवती उमा कहती हैं- अरुन्धती! जिन व्रतों और पुण्यों के द्वारा इस शरीर को परमसुख की प्राप्ति के योग्य बनाया जा सकता है, उन्हें इन तिथियों और श्रेष्ठ फल के साथ बताती हूँ, सुनो। पवित्र व्रत का पालन करने वाली देवि! जो पतिव्रता नारी कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को अपना एक समय का भोजन ब्राह्मण को देकर स्वयं उपवासपूर्वक व्यतीत करती है अथवा उस दिन फल-फूल खाकर रहती है, श्वेत वस्त्र धारण करके सदाचार के पालनपूर्वक गुरुजनों तथा देवताओं की पूजा करती है और इस प्रकार एक वर्ष तक इसी नियम का पालन करके वह अन्त में सुरही गाय के पूँछ के बाल की रस्सी से अच्छी तरह बनाया हुआ चंवर, ध्वज तथा दक्षिणा सहित मिष्टान्न यथाशक्ति ब्राह्मण को देती है, उस पतिभक्ता नारी के केश कटि-प्रदेश के नीचे तक लटककर लहराया करते हैं और उनके अग्रभाग घुँघराले हो जाते हैं। वरवर्णिनि! जो सिर को सुख पहुँचाना चाहती हो, वह सती-साध्वी स्त्री गोबर, आंवला, कच्चा बेल और श्रीफल (पक्का बेल)- इन सबको सम मात्रा में मिलाकर उसके द्वारा सिर को धोये। उसकी मैल दूर करे। सदा गोमूत्र का पान करे और सिर के ऊपर से स्नान करते समय उस जल में गोमूत्र को भी मिला ले। प्रत्येक कृष्णा चतुदर्शी को इस नियम का पालन करना चाहिये। ऐसा करने वाली स्त्री विधवा नहीं होती; सौभाग्यवती बनी रहती है। उसे ज्वर आदि रोग नहीं सताते तथा उसके शरीर में सिर-सम्बन्धी रोगों से कष्ट नहीं होता। पवित्र मुस्कान वाली अरुन्धती! जो स्त्री अपने ललाट को दर्शनी (शोभा से सम्पन्न) बनाये रखना चाहती है, वह प्रत्येक प्रतिपदा तिथि को एक समय भोजन करके बिताये एवं दूध के साथ भात खाकर रहे। जब तक एक वर्ष पूरा न हो, तब तक ऐसा करती रहे। तदनन्तर ब्राह्मण को सुन्दर सुवर्णमय पट[1] दान करे। ऐसा करने वाली सुन्दर कटिप्रदेश वाली स्त्री मनोहर रूप-सौन्दर्य से युक्त ललाट पाती है। निष्पाप अरून्धति! तुम्हारा भला हो, जो भौंहों का सौन्दर्य चाहती हो, वह सती-साध्वी स्त्री सदा द्वितीया तिथि को एक समय उपवास करके साग-भाग खाकर रहे। इस तरह एक वर्ष पूर्ण होने पर सुन्दर पके हुए फल, एक माशा सुवर्ण की दक्षिणा, नमक और घी से भरा हुआ पात्र देकर ब्राह्मण से स्वस्ति वाचन कराये। जो सुन्दर कटिप्रदेश वाली स्त्री अपने कानों को सुन्दर एवं शोभा सम्पन्न बनाये रखना चाहती हो, व श्रवण नक्षत्र प्राप्त होने पर अावश्यक यावक (जौ के आटे का हलवा या पूआ) भोजन करे। इस तरह एक वर्ष पूरा होने पर दो सुवर्णमय कान बनवाकर उन्हें दुग्ध मिश्रित घी में रखकर ब्राह्मण को दान करे दे। जो स्त्री यह चाहती हो कि मेरी नासिका ललाट से संलग्न हो, उसमें किसी तरह की विकृति न आये और वह सदा रोग-व्याधि से रहित एवं सुन्दर बनी रहे तो वह सदा तिल के पौधों को सींचे और तब तक सींचती रहे जब तक कि उसके द्वारा सुरक्षित हुए उन पौधों में फूल तथा फल न लग जायँ। जिस दिन से सींचना आरम्भ करे, उसके एक दिन पहले उपवास कर ले; फिर निरन्तर जल से सींचती रहे। जब उन पौधों में फूल लग जायँ तो उनसे फूल ले घी में डालकर उस घी का दान कर दे। अमृतमय चन्द्रमा से उत्पन्न हुई अरुन्धति! जो स्त्री यह चाहती हो कि मेरे नेत्र सुन्दर हों, वह निरन्तर दूध अथवा घी से ही भोजन करे। पवित्र मुस्कान वाली देवि! इस तरह एक वर्ष पूर्ण होने पर वह वस्त्र और आभूषणों से विभूषित हो कमल और कुमुद के पत्तों को दूध में डाले और जब वे उसमें तैरने लगें, तब वह सती उन पत्तों सहित उस दूध का ब्राह्मण को दान कर दे पतिव्रते! वह दान देकर नारी कृष्णसार मृग के समान नेत्र वाली हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक आभूषण, जिसे स्त्रियां पट्टी की तरह अपने सिर में बांधती हैं।
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