हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यदुकुल के उन सभी श्रेष्ठ पुरुषों ने यदुकुल तिलक वसुदेव पर आक्षेप होता देख शीघ्र ही हाथों से अपने-अपने कान बंद कर लिये। उन सबको यह निश्चय हो गया कि कंस की आयु समाप्त हो चली है। उसी समाज में वक्ताओं में श्रेष्ठ अन्धक भी थे, जिनके मन में कंस से तनिक भी भय नहीं था। उन्होंने धैर्य से अपनी वाणी को विकार रहित रखते हुए कंस से ओजस्वी स्वर में कहा- 'बेटा! तुम्हारा यह परिश्रम मेरे मत में आदर या प्रशंसा के योग्य नहीं है। यह सर्वथा अनुचित है। श्रेष्ठ पुरुषों ने इसकी सदा निन्दा की है। विशेषत: अपने बन्धु –बान्धवों के प्रति ऐसा आक्षेप सर्वथा निन्दित है। वीर! अब इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे ध्यान से सुनो। यदि तुम यादव नहीं हो या अपने को यादव नहीं मानते हो तो ये यदुवंशी तुम्हें जबरदस्ती यादव नहीं बना रहे हैं (और न बनाना चाहते हैं)। वत्से! जिनके शासक तुम हो, वे वृष्णिवंशी आदर और प्रशंसा के योग्य हो ही नहीं सकते हैं। इक्ष्वाकु वंश में एक प्रजापीड़क राजा उत्पन्न हुआ था, जो स्वयं ही किसी समय राज्य छोड़कर भाग गया अथवा मिट गया (इस यदुकुल में तुम भी वैसे ही जान पड़ते हो, अत: तुम्हारी भी वैसी ही दशा होने वाली है। तात! तुम भोज हो, यादव हो कंस हो या जैसा-तैसा कोई भी हो, तुम्हारा मस्तक तुम्हारे साथ ही उत्पन्न हुआ है (और वह अभी तक मौजूद है)। तुम उस पर बड़ी-बड़ी जटाएं रखा लो अथवा मूँड़ मुड़ा लो (यदि तुम यादव रहना नहीं चाहते हो तो जो चाहो, वही बन जाओ)। मेरी दृष्टि में तो यह उग्रसेन शोचनीय है, जो हम लोगों में कुलांगार पैदा हो गया और जिस दुर्जाति ने तुम्हारे- जैसे बेटे को जन्म दिया। तात! मनीषी पुरुष अपने मुख से अपने गुणों का बखान नहीं करते हैं। दूसरे के द्वारा वर्णित या प्रशंसित हुए गुण ही सफल होते और वेदार्थ के तुल्य प्रामाणिक माने जाते हैं। भूमण्डल में यह यदुवंश समस्त भूपालों के लिये निन्दनीय बन गया; क्योंकि तुम्हारे समान कुलनाशक, मूर्ख और अविवेकी बालक इन यादवों का शासक है। तुमने निन्दायुक्त वचनों को उत्तम मानकर जो यहाँ कहा है, उनसे कोई कार्य तो सिद्ध हुआ नहीं; केवल तुम्हारे स्वरूप का स्पष्टीकरण हो गया है (इन बातों से सब लोग यह जान गये कि तुम कितने ओछे हो!)। जो अहंकार रहित तथा महापुरुषों के लिये भी माननीय गुरुजन हैं, उन पर आक्षेप करना ब्रह्म हत्या के समान है। उसे करके कौन अपने लिये कल्याण की आशा कर सकता है। तात! वृद्ध पुरुष अग्नियों के समान आदरणीय तथा सेव्य होते हैं, उनका क्रोध आन्तरिक साधनाओं से प्राप्त हुए लोकों को भी जलाकर भस्म कर सकता है। तात! जिसका आत्मा उन्नति के पथ पर अग्रसर है तथा जो जितेन्द्रिय एवं विवेकशील विद्वान है, उस पुरुष को धर्म की गति का सदा ही अन्वेषण करना चाहिये, जैसे जल में मछली की गति अत्यन्त सूक्ष्म या अव्यक्त होती है, उसी प्रकार धर्म की गति भी सूक्ष्म है। तुम तो केवल अहंकारवश यहाँ बैठे हुए अग्नि के समान तेजस्वी वृद्ध पुरुषों को अपनी मर्मभेदिनी वाणी द्वारा पीड़ा दे रहे हो। जैसे मन्त्र का उच्चारण किये बिना दी हुई आहुति व्यर्थ होती है, उसी प्रकार तुम्हारी ये आक्षेपपूर्ण बातें निष्फल हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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