हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब इन्द्र ने देखा कि श्रीकृष्ण ने गोवर्धन धारण करके गोकुल की रक्षा कर ली, तब वे बड़े विस्मय में पड़े। अब उन्हें श्रीकृष्ण का दर्शन करने की इच्छा हुई। वे जलहीन बादल के समान श्वेत वर्ण वाले और मद के जल से भीगे हुए ऐरावत नामक मदमत्त हाथी पर चढ़कर भूतल पर आये। अनेक नामों से पुकारे जाने वाले पुरंदर इन्द्र ने वहाँ आकर देखा, अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत की एक शिला पर बैठे हुए हैं। महान तेज से उद्भासित होने वाले गोपवेषधारी विष्णु रूप उन अविनाशी बालकृष्ण को देखकर देवराज इन्द्र को बड़़ी प्रसन्नता हुई। नील कमल दल के समान श्यामसुन्दर एवं श्रीवत्स चिह्न विभूषित उन श्रीकृष्ण को देखकर इन्द्र को अपने नेत्रों का फल प्राप्त हो गया। उन्होंने अपने सम्पूर्ण नेत्रों से जी-भरकर उन्हें देखा। मृत्युलोक में रहकर भी देवोपम शोभा से सम्पन्न श्रीकृष्ण को शिलापृष्ठ पर सुखपूर्वक बैठा देख इन्द्र को बड़ी लज्जा हुई। वहाँ बैठे हुए श्रीहरि के मुख पर सर्पभोजी पक्षिराज गरुड़ अदृश्य रहकर अपने दोनों पंखों से छाया किये हुए थे। बलसूदन इन्द्र हाथी छोड़कर उतर पड़े और एकान्त में वन के भीतर रहकर लोक-व्यवहार में तत्पर हुए श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण के समीप जाकर दिव्य पुष्पों के हार और अनुलेपन धारण करने वाले प्रभावशाली देवराज इन्द्र बड़ी शोभा पा रहे थे। उनका हाथ वज्र से परिपूर्ण था। विद्युत के समान प्रकाश फैलाने वाले सूर्यतुल्य तेजस्वी किरीट तथा दो दिव्य कुण्डलों से उनके श्रीमुख की सदा ही शोभा होती थी। वे अपने वक्ष:स्थल पर एक ऐसे हार से विभूषित थे, जिसमें फूलों के पांच गुच्छे लटक रहे थे। खिले हुए सहस्र कमलदल के समान कान्तिमान, सम्पूर्ण शरीर को विभूषित करने वाले तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाले एक सहस्र नेत्रों से वे भगवान श्रीकृष्ण की ओर देख रहे थे। उन्होंने देवताओं को आज्ञा देने के लिये अभ्यस्त और मेघ-गर्जना के समान गम्भीर घोष करने वाले दिव्य स्वर से मधुर वाणी में भगवान से इस प्रकार कहा। इन्द्र बोले- 'कृष्ण! कृष्ण!! महाबाहो!!! आप सजातीय बन्धुओं के आनन्द की वृद्धि करने वाले हैं। गौओं के प्रति प्रीति रखकर आपने जो कर्म किया है, वह अति दिव्य है। मेरे द्वारा छोड़े गये प्रलय की पुनरावृत्ति करने वाले मेघों के वर्षा करने पर भी आपने जो गौओं की रक्षा की है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। यह जो उत्तम पर्वत है, इसे आपने स्वायम्भुव[1] योग से आकाश में घर की भाँति धारण कर लिया था। आपके इस अलौकिक कर्म से किसको आश्चर्य नहीं होगा। श्रीकृष्ण! जब मेरा प्रचलित उत्सव रोक दिया गया, तब मैंने रोष में भरकर गौओं पर अपना क्रोध उतारने के लिये सात रात तक अतिवृष्टि की। उस दुर्जय मेघवृष्टि का आपने निवारण कर दिया। मेरे रहते दानवों सहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी उस वर्षा को रोकना बहुत कठिन था। श्रीकृष्ण! यह एक आश्चर्यमयी घटना हुई है। मेरे लिये यह बहुत ही प्रिय है कि आप मनुष्य-शरीर धारण करके भी अपने भीतर सम्पूर्ण वैष्णव तेज को छिपाये रखते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्वायम्भुव योग कहते हैं हैरण्यगर्भी (ब्रह्मसम्बन्धिनी) धारणा को, उसके करने से भारी-से-भारी वस्तु भी हलकी हो जाती है। जैसे श्रीकृष्ण के उठाते समय गोवर्धन पर्वत हल्का हो गया था, इसी तरह इस योग या धारणा का आश्रय लेने से बड़ी-से-बड़ी वस्तु भी बहुत छोटी या अल्प हो जाती है। जैसे अगस्त्य के समुद्र पान करते समय उनके लिये सारा समुद्र तीन ही आचमन में सीमित होकर आ गया था।
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