हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 19 श्लोक 19-38

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद


आप मानव-शरीर को प्राप्त होकर भी अपने वैष्णव तेज से सम्‍पन्न हैं, इसलिये मैं देवताओं के कार्य को सिद्ध हुआ ही मानता हूँ। अब हमारा कोई कार्य बिगड़ नहीं सकता। जब आप देवताओं के नेता हैं और सभी कार्यों में अग्रगामी रहते हैं, तब हमारा सब कार्य, समस्‍त प्रयोजन सिद्ध हो जायगा, कुछ भी बिगड़ने नहीं पायेगा। प्रभो! एकमात्र आप ही सम्‍पूर्ण देवता तथा लोकों के सनातन रक्षक हैं। मैं आपके सिवा दूसरे किसी को यहाँ ऐसा नहीं देखता, जो उन लोकों और देवताओं की रक्षा का भार वहन कर सके। जैसे श्रेष्ठ बैल भार ढोने के लिये सबसे आगे जोता जाता है, उसी प्रकार आप संकट में डूबे हुए देवताओं का उद्धार करने के लिये सबसे आगे रहते हैं। पक्षिराज गरुड़ आपके वाहन हैं। श्रीकृष्ण! यह जो संसार की सृष्टि हैं, वह सब आपके शरीर के भीतर ही है। ब्रह्मा जी ने तो उसका भली-भाँति निर्देश मात्र किया है। जैसे सब धातुओं में सुवर्ण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्‍त देवताओं में आप हैं। साक्षात स्‍वयम्‍भू भगवान ब्रह्मा भी अपनी बुद्धि अथवा अवस्‍था के द्वारा आपका अनुसरण नहीं कर सकते- आपके साथ-साथ नहीं चल सकते। ठीक उसी तरह जैसे पंगु मनुष्य शीघ्रगामी पुरुष का पीछा नहीं कर सकता- उसके साथ नहीं जा सकता।

समस्‍त पर्वतों में हिमवान श्रेष्ठ है। सरोवरों में समुद्र उत्‍तम है। पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में आप श्रेष्ठ हैं। सबसे नीचे जल लोक है, उसके ऊपर पर्वत हैं। यह पृथ्‍वी नागों के ऊपर स्थित है और पृथ्‍वी पर मनुष्य निवास करते हैं। मनुष्यलोक से ऊपर आकाश में पक्षियों की गति बतायी जाती है। आकाश से ऊपर अंशुमाली सूर्य है, जो स्‍वर्गलोक के द्वारा कहे गये हैं। सूर्यलोक से ऊपर देवताओं का महान लोक है, जहाँ विमान से यात्रा की जाती है। श्रीकृष्ण! वहीं मुझे देवेन्द्र पद पर स्‍थापित किया गया है। स्‍वर्ग से ऊपर ब्रह्मलोक है, जो ब्रह्मर्षिगणों से सेवित है। वहाँ तक चन्द्रमा की तथा महात्‍मा ग्रह-नक्षत्रों की गति है। ब्रह्मलोक से ऊपर गोलोक है, जिसका साध्‍यगण पालन करते हैं। श्रीकृष्ण! वह महान लोक सर्वव्यापी है। महाकाेश में व्यापक रूप से स्थित है। उसमें भी आपकी तपोमयी गति सर्वोपरि है। हम पितामह से पूछते रहने पर भी अब तक आपकी उस गति को नहीं जान सके हैं।

भयंकर नागलोक सबसे नीचे है। वह पापचारियों को प्राप्त होने वाला लोक या स्‍थान है। जो स्‍वभाव से ही कर्मठ हैं, उनके लिये यह भूलोक है। यह समस्‍त कर्म का क्षेत्र है। जो अस्थिर हैं, जिनकी वृत्ति वायु के समान है, उनका आश्रय आकाश या अन्तरिक्ष लोक है। जो शम-दम से सम्‍पन्न हो पुण्‍य-कर्म में लगे रहते हैं, उन मनुष्यों की गति स्‍वर्गलोक है। जो ब्राह्म-तप में संलग्‍न रहने वाले लोग हैं, उनकी परमगति ब्रह्मलोक है। गोलोक तो गौओं को ही सुलभ होने वाला लोक है। वह गति दूसरों के लिये दुरारोह (दुर्लभ) है। वीर श्रीकृष्ण! इस समय (मेरे द्वारा वर्षा के कारण) वही गौओं का लोक संकट में पड़ गया था, जिसे आप-जैसे धैर्यशाली पुण्‍यात्‍मा पुरुष ने उन गौओं पर आये हुए उपद्रवों का नाश कर के बचाया है। अत: महाभाग! मैं (दिव्य कामधेनु आदि) गौओं के तथा ब्रह्मा जी के वचनों से प्रेरित होकर यहाँ आया हूँ। आपके प्रति मेरे मन में जो गौरव है; उससे भी मुझे यहाँ आने में प्रेरणा मिली है। श्रीकृष्ण! मैं वही समस्‍तभूतों का अधिपति देवराज इन्द्र हूँ, जिसे आपने पूर्वकाल में माता अदिति के गर्भ में आकर अपना बड़ा भाई बनाया था। प्रभो मैंने जो देवरूप से उपस्थित होकर तेज से अपना तेज प्रकट करके आपको दिखाया है, मेरे उस सारे अपराध को क्षमा कर दें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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