हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-20

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्विनवतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

हंसों का वज्रपुर में निवास, हंसी का प्रभावती को प्रद्युम्न के प्रति अनुरक्‍त करना, प्रभावती का हंसी से प्रद्युम्न की प्राप्ति कराने का अनुरोध, हंसी और वज्रनाभ का संवाद, हंसों के मुँह से सब समाचार सुनकर श्रीकृष्‍ण का नट वेष में प्रद्युम्न आदि यादवों को वज्रपुर में भेजना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजा जनमेजय! इन्द्र की यह बात सुनकर वे हंस वज्रपुर में गये। वहाँ का मार्ग उनके लिये पूर्व-परिचित था। वीर! वे पक्षी वहाँ के रमणीय सरोवरों में, जो स्‍पर्श के योग्‍य सुवर्णमय कमलों से आवृत्त थे, जाकर बैठे। वे हंस अपूर्व संस्‍कृत भाषा बोलते और मधुर कलरव करते थे। यद्यपि वे उस नगर में पहले भी आ चुके थे, तथापि नये आये हुए के समान वहाँ के निवासियों को आश्‍चर्य में डाल रहे थे। नरेश्‍वर! वे अन्‍त:पुर के उपभोग में आने वाली बावड़ियों में चरने लगे। उन स्‍वर्गवासी हंसों पर वज्रनाभ की भी दृष्टि पड़ी। जनेश्‍वर! वे हंस अत्‍यन्‍त मधुर बोली बोल रहे थे। उन्‍हें देखकर उस दैत्‍य ने उनसे इस प्रकार कहा- 'हंसों! तुम लोग सदा स्‍वर्ग लोक में रमते और मनोहर बोली बोलते हो। जब कभी यहाँ हम लोगों के घर उत्‍सव हो और तुम्हें इसका पता लग जाय तब तुम अवश्‍य यहाँ पधारना। यह तुम्हारा अपना ही घर है। स्‍वर्ग निवासी हंसों को यहाँ निर्भय होकर प्रवेश करना चाहिये’। भारत! वज्रनाभ के ऐसा कहने पर उन पक्षियों ने ‘तथास्‍तु' कहकर उसकी बात मान ली और उस दानव राज के महल में प्रवेश किया। उन्‍होंने देवताओं के कार्य को सिद्ध करने की इच्‍छा से वहाँ सबसे परिचय प्राप्‍त किया। वे मनुष्‍यों की-सी बोली बोलते और भाँति-भाँति की कथाएं कहते थे। समस्‍त कल्‍याणमय पदार्थों का उपभोग करने वाले कश्‍यपवंशी दानवों की स्त्रियां अपने वंश से सम्बन्‍ध रखने वाली सुसंगत कथाएं सुनती हुई उनमें विशेष रूप से रम जाती थीं। तदनन्‍तर वहाँ विचरते हुए हंसों ने उस समय वज्रनाभ की पुत्री मनोहर मुस्‍कान वाली सुन्‍दरी प्रभावती को देखा।

फिर उन सभी हंसों ने उस चारुहासिनी राजकुमारी से परिचय कर लिया। राजकुमारी प्रभावती ने उस समय शुचिमुखी नाम वाली हंसी को अपनी सखी बना लिया। एक दिन की बात है, शुचिमुखी ने सैकड़ों कथाएं तथा भाँति-भाँति की सुन्‍दर उक्तियां सुनाकर अपनी श्रेष्‍ठ सखी वज्रनाभकुमारी प्रभावती के मन में पूर्ण विश्‍वास पैदा कर लिया। तत्‍पश्चात उससे पूछा- ‘प्रभावती! मैं तुम्हें त्रिभुवन की अद्वितीय सुन्‍दरी मानती हूँ। देवि! तुम रूप, शील और गुणों में श्रेष्‍ठ हो, इसलिये मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ। भीरु! चारुहासिनि! तुम्हारी जवानी व्‍यर्थ बीती जा रही है। जैसे जल का बहता हुआ स्रोत फिर पीछे नहीं लौटता, उसी प्रकार जो अवस्‍था बीत गयी, वह फिर वापिस नहीं आती है। देवि! कल्‍याणि! संसार में स्त्रियों के लिये कामोपभोग के समान दूसरा कोई सुख नहीं है; यह मैं तुमसे सत्‍य कहती हूँ। सर्वांग शोभने! तुम्हारे पिता ने तुम्हें स्‍वयंवर में उपस्थित किया, परंतु तुम देवताओं तथा असुरों के कुल में उत्‍पन्‍न हुए किन्‍हीं योग्‍य पुरुष का वरण ही नहीं करती हो (इसका क्‍या कारण है?)। शुभे! सुश्रोणि! तुम्हारे इनकार कर देने पर ब्‍याह के लिये आये हुए पुरुष लज्जित होकर लौट जाते हैं। देवि! जो रूप और शौर्य आदि गुणों से युक्‍त हैं तथा तुम्हारे कुल के सर्वथा अनुरूप हैं, ऐसे कुल और रूप में अपने ही समान पुरुषों के आने पर भी तुम उन्‍हें वरण करना नहीं चाहती। ऐसा क्‍यों करती हो? भला, रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्न यहाँ किसलिये आयेंगे? जिनके रूप और कुल की समानता करने वाला त्रिलोकी में दूसरा कोई नहीं है। शुभे! सर्वांगसुन्‍दरि! वे गुणों अथवा शौर्य में भी सबसे बढ़कर हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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