हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 123 श्लोक 1-20

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रयोविंशत्यधिकशत्‍तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण से पराजित हुए ज्वर का उनकी शरण में जाना, उनसे वर पाना और उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर रणभूमि से हट जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस ज्‍वर को मरा हुआ जानकर शत्रुसूदन श्रीकृष्ण ने अपनी बलिष्ठ भुजाओं से उठाकर उसे पृथ्वी पर फेंक दिया। श्रीकृष्ण की भुजाओं से छूटते ही वह उनके शरीर के भीतर घुस गया, वह अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह को छोड़कर न जा सका। उस अप्रतिम बलशाली ज्वर से आविष्ट होकर श्रीकृष्ण बारम्बार लड़खड़ाते हुए से पृथ्वी पर बैठ गये और जोर-जोर से लोटने लगे। वे बारम्बार जँभाई लेते, लम्बी साँस खींचते और उछलते-कूदते थे, उनके सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया और वे निद्रा से अभिभूत होने लगे। तदनन्तर किसी तरह स्थिरता धारण करके शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले महायोगी श्रीकृष्ण बारम्बार जँभाई लेते हुए विकार को प्राप्त होने लगे।

अपने-आपको ज्वर से आक्रान्त हुआ जान पुरुषोत्तम श्रीहरि ने दूसरे ज्वर की सृष्टि की, जो पूर्व ज्वर का विनाश करने वाला था। तेजस्वी श्रीकृष्ण ने जिस भयानक पराक्रमी ज्वर की सृष्टि की थी, वह घोर वैष्णव ज्वर अत्यन्त उग्र तथा समस्त प्राणियों के लिये भयंकर था। श्रीकृष्ण द्वारा रचे गये उस ज्‍वर ने पूर्वोक्त त्रिशिरा ज्वर को बलपूर्वक पकड़कर बड़े हर्ष के साथ उसे श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया। तब श्रीहरि ने पुन: उस ज्वर को पकड़ लिया। तब अत्यन्त क्रोध में भरे हुए महाबली पराक्रमी भगवान वासदेव ने अपने ज्वर के द्वारा ही त्रिशिरा ज्वर को अपने शरीर से निकलवा दिया। तत्पश्चात वे उसे पृथ्वी पर घुमाकर उसके टुकड़े कर देने को उद्यत हो गये, तब वहाँ उस ज्वर ने यह पुकार की, ‘प्रभो! आप मेरी रक्षा करें।' अमिततेजस्वी श्रीकृष्ण के द्वारा उस ज्‍वर के घुमाये जाते समय आकाश से शरीर रहित वाणी ने इस प्रकार कहा- ‘कृष्ण! कृष्ण!! यदुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले निष्पाप श्रीकृष्ण! आप इस ज्वर का वध न कीजिये, यह आपके द्वारा रक्षणीय है।'

आकाशवाणी के ऐसा कहने पर भूत, भविष्य और वर्तमान जगत के परमगुरु साक्षात श्रीहरि ने उसे छोड़ दिया। उनके हाथ से इस प्रकार मुक्त होकर वह ज्वर श्रीकृष्ण के दोनों चरणों में मस्तक रखकर उन्हीं की शरण में गया और उन भगवान ह्रषीकेश से इस प्रकार बोला- ‘गोविन्द! यदुनन्दन! मेरा निवेदन सुनिये। देव! महाबाहो! मेरा जो मनोरथ है, उसे पूर्ण कीजिये। तात! देवेश्वर! संसार में मैं एक ज्वर हूँ, अब मेरे सिवा दूसरा कोई ज्वर न हो। आपकी कृपा से मैं इस वर को माँगता हूँ।' श्रीभगवान ने कहा- ज्वर! तुम्हारा भला हो, तुम जैसा चाहते हो, ऐसा ही हो। मेरे लिये सभी वरार्थियों को वर देना उचित है, तुम तो वरार्थी होकर मेरी शरण में आये हो (अत: तुम विशेष कृपा के पात्र हो)। तुम पहले की भाँति संसार में एक ही ज्वर के रूप में रहो। मैंने जो इस ज्वर की सृष्टि की है, यह फिर मुझमें ही लीन हो जाये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस ज्वर के प्रति ऐसी बात कहकर प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ महायशस्वी श्रीकृष्‍ण पुन: इस प्रकार बोले। वासुदेव ने कहा- ज्वर! मेरा संदेश सुनो, जिसके अनुसार तुम चराचर जगत में सभी जाति के प्राणियों के भीतर बेखट के विचरण करोगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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