हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसी समय चारों वेदों और छहों अंगों के ज्ञाता एक ब्राह्मण, जिनका नाम ब्रह्मदत्त था, एक वर्ष तक चालू रहने वाले यज्ञ की दीक्षा में दीक्षित हुए। ब्रह्मदत्त याज्ञवल्क्य के शिष्य, धर्म सम्बन्धी गुणों से सम्पन्न तथा शुक्ल यजुर्वेद-वाजसनेय संहिता के अध्येता थे। उनका घर भी षट्पुर में ही था। उन्होंने कभी बुद्धिमान वसुदेव जी का अश्वमेध यज्ञ कराया था। वे मुनि सेवित श्रेष्ठ नदी आवर्ता के पवित्र तट पर यज्ञ करते थे। करुनन्दन! द्विजश्रेष्ठ ब्रह्मदत्त महात्मा वसुदेव जी के सहपाठी, सखा, उपाध्याय और अध्वर्यु भी थे। प्रभो! इसीलिये जैसे इन्द्र बृहस्पति के यहाँ जाते हैं, उसी प्रकार देवकी सहित वसुदेव जी वहाँ षट्पुर में रहकर यज्ञ करने वाले ब्रह्मदत्त के यहाँ निमन्त्रित होकर गये थे। ब्रह्मदत्त व यज्ञ बहुत-से अन्न और प्रचुर दक्षिणा से सम्पन्न था। दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ महात्मा उस यज्ञ का सेवन करते थे। भरतनन्दन! वह यज्ञ बुद्धिमान वसुदेव जी के अनुरूप समृद्धि से युक्त था। उसमें मैं, मेरे गुरु व्यास जी, याज्ञवल्क्य मुनि, सुमन्तु, जैमिनि, धैर्यशील जाबलि (या जाबालि) तथा देवल आदि महर्षि भी उपस्थित थे। उस यज्ञ में धर्मपरायणा देवकी देवी जगत्स्रष्टा भगवान वासुदेव के प्रभाव से इस पृथ्वी पर सबको मनोवांछित पदार्थ दान करती थीं। जब वह यज्ञ चलने लगा, उस समय षट्पुर में रहने वाले निकुम्भ आदि दैत्य, जो वर पाकर घमंड में भरे रहते थे, वहाँ आकर ब्रह्मदत्त से बोले- 'हमारे लिये भी यज्ञ का भाग निकाला जाय, हम लोग इस यज्ञ में सोमरस का पान करेंगे। यजमान ब्रह्मदत्त हमें अपनी कन्याएं दें। हमने सुना है कि इन महात्मा के बहुत-सी रूपवती कन्याएं हैं। उन सबको बुलाकर सब प्रकार से हमारे लिये दान कर देना चाहिये। ब्रह्मदत्त जी हमें उत्तमोत्तम रत्न प्रदान करें। (तभी ये यहाँ यज्ञ कर सकते हैं) अन्यथा इन्हें यज्ञ नहीं करना चाहिये। यह हम आज्ञा देते हैं।' यह सुनकर ब्रह्मदत्त ने उन बड़े-बड़े असुरों से कहा- ‘असुर शिरोमणियों! पुरातन वेद में असुरों के लिये यज्ञ भाग देने का विधान नहीं है; फिर मैं यज्ञ में आप लोगों को सोमरस कैसे दे सकता हूँ? यहाँ वेद के विस्तृत अर्थ को जानने वाले श्रेष्ठ मुनि बैठे हैं, इनसे पूछ लीजिए। मुझे अपनी जिन कन्याओं का दान करना था, उनका मानसिक संकल्प मैंने कर दिया (वे दूसरों को दी जा चुकी हैं), अब उन्हें अन्तर्वेदी में योग्य वरों के हाथ में सौंप देना है। इसमें संशय नहीं है। अब रही रत्नों की बात, उन्हें मैं आप लोगों को तभी दूँगा, जब आप सान्त्वनापूर्वक बात करें, इस बात को आप अच्छी तरह सोच-समझ लें। बलपूर्वक मांगने पर मैं कुछ नहीं दूँगा; क्योंकि भगवान देवकीनन्दन की शरण ले चुका हूँ (वे ही मेरी रक्षा करेंगे)। यह उत्तर सुनकर षट्पुर में निवास करने वाले निकुम्भ आदि पापी असुर रोष में भर गये। उन्होंने यज्ञमण्डप को तहस-नहस कर दिया और ब्रह्मदत्त की कन्याओं को हर लिया। यज्ञमण्डप में वह लूट मची हुई देख वसुदेव ने महात्मा श्रीकृष्ण, बलदेव और गद का चिन्तन किया। श्रीकृष्ण को तो सब बात ज्ञात ही थी। उन्होंने प्रद्युम्न से कहा- ‘बेटा! जाओ और माया द्वारा ब्रह्मदत्त की कन्याओं की शीघ्र रक्षा करो। प्रभो! तब तक मैं यादव वीरों की सेना के साथ षट्पुर को चल रहा हूँ। महाबली कामस्वरूप वरी प्रद्युम्न पिता की आज्ञा का पालन करने वाले थे। वे तत्काल षट्पुर की ओर चल दिये और पलक मारते-मारते वहाँ पहुँचकर उन महाबली बुद्धिमान वीर ने उन कन्याओं का माया द्वारा अपहरण कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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