हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 18 श्लोक 22-41

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद


उनकी जांघें और पैर हिल नहीं पाते थे, खुर और मुख निश्चेष्ट थे, भीगे हुए शरीर में रोंगटे खड़े हो गये थे और पेट तथा थन अत्‍यन्‍त दुबले होकर सिकुड़ गये थे। कुछ गौओं ने पीड़ा से शान्‍त होकर अपने प्राण त्‍याग दिये। कुछ आतुर होकर गिर पड़ीं और कितनी ही गौएं जल के छींटों से उद्विग्‍न होकर बछड़ों सहित धराशायिनी हो गयीं। कुछ गौमाताएं बछड़ों को अपने अंग में छिपाकर खड़ी थी, कितनी ही बछड़ों की ओर से विमुख हो गयी थीं, उनकी जांघें शिथिल हो रही थीं, कुछ दाना-घास न मिलने के कारण उनके पेट भीतर को धँस गये थे। वर्षा से परास्‍त होकर पीड़ित हुई गौएं थर-थर कांपती हुई पृथ्‍वी पर गिर पड़ती थीं। छोटे-छोटे बछड़े मुँह ऊपर उठाकर दामोदर की ओर देखते खड़े थे, मानो वे पीड़ित बछड़े अपने दीन मुखों से श्रीकृष्ण को सम्‍बोधित करके कह रहे थे कि ‘प्रभो! हमारी रक्षा कीजिये’। इस दुर्दिन के आने से गौओं का वह महासंहार होता देख और गोपों को भी मौत के निकट पहुँचा हुआ जान श्रीकृष्ण ने इन्‍द्र के प्रति महान कोप धारण किया। प्रिय वचन बोलने वाले श्रीकृष्ण ने कुछ देर सोच-विचार कर रोषवेश से युक्‍त हो स्‍वयं ही अपने-आपसे इस प्रकार कहा- ‘इस वर्षा से बचने का उपाय मैंने देख लिया। आज मैं वन और काननों सहित इस दुर्धर गोवर्धन पर्वत को उखाड़कर गौओं को वर्षा से बचाने के लिये सुरक्षित स्‍थान का निर्माण करूँगा। मेरे द्वारा धारण किया हुआ यह पर्वत पृथ्‍वी पर बने हुए घर के समान होकर व्रज सहित समूची गौओं का परित्राण करेगा और मेरे अधीन हो जायगा।'

इस प्रकार सोच-विचारकर सत्‍य पराक्रमी श्रीकृष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं का बल दिखाते हुए उस निकटवर्ती पर्वत को दोनों हाथों से पकड़कर उखाड़ लिया। उस समय श्रीकृष्ण दूसरे पर्वत के समान ही जान पड़ते थे। भगवान के बायें हाथ से धारण किया गया और मेघों से सटा हुआ वह पर्वत उनके गृहकारक तेज या संकल्‍प से वहाँ गृहभाव को प्राप्त हो गया। जिस समय वह पर्वत पृथ्‍वी से उखाड़ा जाने लगा, उस समय उसके शिखरों पर जो टूटी-फूटी शिलाएं थीं, वे खिसककर गिरने लगीं और बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। उस समय चक्‍कर काटते हुए शिखरों, खण्डित होते हुए वृक्षों तथा कांपती हुई ऊँची चोटियों के कारण वह अविचल पर्वत आकाशचारी पक्षी के समान प्रतीत होने लगा। पार्श्‍ववर्ती चंचल झरने मेघों के समूहों से मिलकर एकता को प्राप्त हो गये। वह पर्वत हिलने लगा और उसकी प्रस्‍तर राशि विदीर्ण होकर बिखरने लगी। उस पर्वत के नीचे गर्भगृह में बैठे हुए वे सब लोग न तो बरसते हुए मेघों का, न पत्‍थर बरसाने वाले पर्वत का और न गरजती हुई वायु का ही स्‍वरूप जान सके। झरनों से मिले हुए पर्वताकार नील मेघों से मिश्रित हुआ वह पर्वत पंख उठाये हुए मोर के समान प्रतीत होता था।

विद्याधर, नाग, गन्धर्व और अप्सराएं सब ओर ऐसी चर्चा करते थे कि यह पर्वत अपने मेघरूपी पंखों से ऊपर को उड़ने के लिये उद्यत-सा प्रतीत होता है। वह पर्वत श्रीकृष्ण की हथेली पर टिका हुआ था। भूतल से उसके मूलभाग का सम्‍बन्‍ध टूट चुका था। उस दशा में वह सोने, कोयले, चांदी तथा गेरू आदि धातुओं को प्रकट करने लगा। उस पर्वत के कुछ शिखर शिथिल हो गये थे, कुछ आधे भाग से टूट गये थे। पर्वत के हिलने के साथ ही उसके ऊपर के वृक्ष कम्पित हो उठे और नाना प्रकार के फूल पृथ्‍वी पर सब ओर बिखर गये। उस समय मोटे-मोटे मस्‍तक वाले सर्पराज, जो आकाश में उड़ने की शक्ति रखते थे, कुपित होकर आकाश में सब ओर निकल पड़े। उनके शरीर आधे स्‍वस्तिक से विभूषित थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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