हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार सोच-विचारकर सत्य पराक्रमी श्रीकृष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं का बल दिखाते हुए उस निकटवर्ती पर्वत को दोनों हाथों से पकड़कर उखाड़ लिया। उस समय श्रीकृष्ण दूसरे पर्वत के समान ही जान पड़ते थे। भगवान के बायें हाथ से धारण किया गया और मेघों से सटा हुआ वह पर्वत उनके गृहकारक तेज या संकल्प से वहाँ गृहभाव को प्राप्त हो गया। जिस समय वह पर्वत पृथ्वी से उखाड़ा जाने लगा, उस समय उसके शिखरों पर जो टूटी-फूटी शिलाएं थीं, वे खिसककर गिरने लगीं और बहुत-से वृक्ष भी धराशायी हो गये। उस समय चक्कर काटते हुए शिखरों, खण्डित होते हुए वृक्षों तथा कांपती हुई ऊँची चोटियों के कारण वह अविचल पर्वत आकाशचारी पक्षी के समान प्रतीत होने लगा। पार्श्ववर्ती चंचल झरने मेघों के समूहों से मिलकर एकता को प्राप्त हो गये। वह पर्वत हिलने लगा और उसकी प्रस्तर राशि विदीर्ण होकर बिखरने लगी। उस पर्वत के नीचे गर्भगृह में बैठे हुए वे सब लोग न तो बरसते हुए मेघों का, न पत्थर बरसाने वाले पर्वत का और न गरजती हुई वायु का ही स्वरूप जान सके। झरनों से मिले हुए पर्वताकार नील मेघों से मिश्रित हुआ वह पर्वत पंख उठाये हुए मोर के समान प्रतीत होता था। विद्याधर, नाग, गन्धर्व और अप्सराएं सब ओर ऐसी चर्चा करते थे कि यह पर्वत अपने मेघरूपी पंखों से ऊपर को उड़ने के लिये उद्यत-सा प्रतीत होता है। वह पर्वत श्रीकृष्ण की हथेली पर टिका हुआ था। भूतल से उसके मूलभाग का सम्बन्ध टूट चुका था। उस दशा में वह सोने, कोयले, चांदी तथा गेरू आदि धातुओं को प्रकट करने लगा। उस पर्वत के कुछ शिखर शिथिल हो गये थे, कुछ आधे भाग से टूट गये थे। पर्वत के हिलने के साथ ही उसके ऊपर के वृक्ष कम्पित हो उठे और नाना प्रकार के फूल पृथ्वी पर सब ओर बिखर गये। उस समय मोटे-मोटे मस्तक वाले सर्पराज, जो आकाश में उड़ने की शक्ति रखते थे, कुपित होकर आकाश में सब ओर निकल पड़े। उनके शरीर आधे स्वस्तिक से विभूषित थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज