हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 119 श्लोक 171-193

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 171-193 का हिन्दी अनुवाद

वह मायाधारी बलवान दानव स्वयं छिपकर अनिरुद्ध पर पैने बाणों की वर्षा करने लगा। बाणासुर को अदृश्य हुआ जान अपराजित वीर अनिरुद्ध पुरुषार्थ से युक्त हो दसों दिशाओं की ओर देखने लगे। तब क्रोध में भरे हुए मायाधारी बलिपुत्र बलवान बाणासुर ने तामसी विद्या का आश्रय ले छिपे रहकर तीखें बाणों का प्रहार आरम्भ किया। उस समय प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध सर्पाकार बाणों द्वारा चारों ओर से बँध गये। उनका शरीर सर्प समूहों से बारम्बार आवेष्टित हो गया। युद्ध में सारे अंग सर्पों से वेष्टित एवं बद्ध हो जाने के कारण प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध निश्चेष्ट कर दिये गये और वे मैनाक पर्वत की भाँति अचल भाव से खड़े हो गये। मुख से आग उगलने वाले सर्पों के शरीरों द्वारा सब ओर से आवेष्टित एवं चेष्टाहीन हुए अनिरुद्ध उस रणभूमि में पर्वत के समान प्रतीत होते थे। सर्पमुख बाणों द्वारा सब ओर से परिवेष्टित हो अपना प्रयत्न और गति अवरुद्ध हो जाने भी सर्वभूतात्मा अनिरुद्ध मन में व्यथित नहीं हुए। तब रोष में भरे हुए बाणासुर ने कठोर वचनों द्वारा अनिरुद्ध को फटकारा, फिर उसने ध्वज का सहारा लेकर अमर्षयुक्त हो यह बात कही- ‘कुम्भाण्ड! इस कुलांगार का शीघ्र वध कर डालो, जिस दूषित हृदय वाले दुष्ट ने संसार में मेरे यश को कलंकित कर दिया’। बाणासुर के ऐसा कहने पर मंत्री कुम्भाण्ड ने कहा- ‘राजन! इस विषय में मैं कुछ कहना चाहता हूँ। यदि आपकी इच्छा हो तो मेरी बात को सुन लें। पहले इस बात को जान लीजिये, यह किसका पुत्र है और कहाँ से आया है अथवा इस इन्द्रतुल्य पराक्रमी वीर को कौन यहाँ ले आया है?

राजन! मैंने इस महासमर में युद्ध करते समय इसकी ओर बारम्बार देखा है। यह युद्ध भूमि में देवकुमार के समान क्रीड़ा करता-सा दिखायी देता था। दैत्यप्रवर! यह बलवान, धैर्यसम्पन्न तथा सम्पूर्ण शस्त्रविद्या में प्रवीण है। अत: वधरूप दोष का पात्र नहीं है। आपकी कन्या ने गान्धर्व विवाह के द्वारा इसके साथ समागम किया है। अत: न तो अब वह दूसरे को देने योग्‍य रही गयी है और न दूसरे के द्वारा ग्रहण करने योग्‍य ही, अत: खूब सोच-विचारकर इसका वध कीजिये। पहले इसका परिचय प्राप्त करके फिर वध अथवा पूजन कीजियेगा। इसका वध करने में महान दोष है और रक्षा करने में महान गुण। यह पुरुषों में श्रेष्ठ होने के कारण सर्वथा सम्मान के योग्‍य है। देखिये! सर्पों ने सब ओर से इसके शरीर को जकड़ लिया है तो भी यह व्यथित नहीं होता है।

अपने कुल के अभिमान, बल-पराक्रम तथा धैर्य सम्पन्न है। राजन! देखिये तो सही! महाबली सर्पों से बद्ध होकर वधावस्था को प्राप्त होने पर भी यह बलवान पुरुषोत्तम वीर हम सब लोगों को कुछ भी नहीं गिनता है। यह युद्ध के सभी मार्गों का ज्ञाता तथा बल-पराक्रम में आप से भी बढ़कर है। इसके सारे अंग खून से लथपथ हो गये हैं। इसे सर्प के शरीरों से जकड़ दिया गया है तो भी यह भौहों को तीन जगह से टेड़ी करके यहाँ खड़े हुए हम लोगों को कुछ नहीं समझता है। राजन! इस अवस्था को पहुँच जाने पर भी यह अपने बाहुबल का भरोसा करके आपकी कोई परवाह नहीं करता है। वास्तव में यह युवक कोई अद्भुत पराक्रमी वीर है। सहस्रबाहु के साथ समरभूमि में यह दो ही बाँहों का वीर खड़ा है, किंतु अपने बल-पराक्रम के मद से उन्मत्त हो आपके बल-वीर्य को कुछ नहीं समझता। असुरप्रवर! आपकी यह कन्या इसके साथ सम्बन्ध स्थापित कर चुकी है, अत: अब दूसरे को नहीं दी जा सकती। यदि यह किन्हीं महात्मा पुरुषों के कुल में उत्पन्न हो तो हमारे लिये परम अभीष्ट है। उस दशा में यह वीर हमसे पूजा प्राप्त करेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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