हरिमुख निरखति नागरि नारि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


हरिमुख निरखति नागरि नारि।
कमल नैन के कमलबदन पर, वारिज वारिज वारि।।
सुमति सुंदरी सरस-पिया-रस-लपट माँडी आरि।
हरि जुहारि जू करत बसीठी, प्रथमहिं प्रथम चिन्हारि।।
राखति ओट कोटि जतननि करि, झाँपति अंचल झारि।
खंजन मनहुँ उड़न कौं आतुर, सकत न पंख पसारि।।
देखि सरूप स्याम सुंदर कौं, रही न पलक सम्हारि।
देखहु सूरज अधिक ‘सूर’ तन, अजहुँ न मानी हारि।।1816।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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