हँसति सखनि यह कहत कन्हाई।
जाइ चढ़ौ तुम सघन द्रुमनि पर, जहँ-तहँ रहौ छपाई।।
तब लौ बैठि रहौ मुख मूंदै, जब जानहु सब आई।
कूदि परौ तब द्रुमनि-द्रुमनि तैं, दै दै नंद-दुहाई।।
चकित होहिं जैसैं जुवती-गन, डरनि जाहिं अकुलाई।
बेनु-बिषान-मुरलि-धुनि कीजौ संख-शब्द घहनाई।।
नित प्रति जाति हमारैं मारग, यह कहियो समुझाई।
सूर स्याम माखन-दधि-दानी, यह सुधि नाहिंन पाई?।।1495।।